विषय :- बदलता समय अर्थात परिवर्तन
विधा :- संस्मरण
परिवर्तन प्रकृति का शास्वत नियम है , जो कि सर्वविदित है | इस नियम के अनुसार समय-२ पर मूर्त-अमूर्त हर प्रकार की वस्तुओं में परिवर्तन देखा जाना लाजिमी ही है, इसी प्रकार संस्मरण के रूप में आप सबके समक्ष अपने बचपन की बात रखने जा रहा हूँ, उस समय जब मैं बहुत छोटा था तो गाँव में ही रहता था, गाँव में ही पढ़ाई-लिखाई और घर परिवार के हर प्रकार के काम-काज करते हुए बचपन के साथ-२ जीवन के सुनहरे २०-२१ साल बीत गये, आज जब कभी उन दिनों को याद करता हूँ तो मन करता है कि काश वो दिन फिर लौटकर आ जाते, क्योंकि वो दिन जैसे भी थे बहुत अच्छे थे |
बचपन में हम जब छोटे-छोटे थे तो गाँव में ही रहते थे, तो उस समय आज की तरह गाँव शहरों की मानिंद इतने विकसित नहीं थे, उस समय गाँवों में शहरों की भाँति हर वस्तु आसानी से और नजदीक में ही नहीं मिलती थी, यदि हमें कुछ लेना भी होता तो गाँव से बाहर बहुत दूर-२ वो भी पैदल ही बाजारों में जाना पड़ता था, आज तो पहाड़ों में भी गाँव-२ और घर में दुकानें खुल चुकी हैं , शहरों की तरह उनमें भी हर प्रकार की अधिकतर वस्तुएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, इसके अलावा किसी वस्तु के लिए बाजार भी जाना पड़ा तो गाँव-२ में रोड़ और घर-२ में गाड़ियां खड़ी हैं, मगर हमारे समय में ऐसा नहीं था, हम स्कूल भी जाते थे तो हमें पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था, पाँच किलोमीटर आना और पाँच किलोमीटर जाना, और स्कूल से वापस आकर फिर घर का काम भी करना पड़ता था, लेकिन हम फिर भी खुश रहते थे | इस सब के बावजूद बाल मन तो बाल मन ही होता है, जो चंचल और जिज्ञासु होने के साथ-२ महत्वाकांक्षी भी होता ही है, बशर्ते उसकी महत्वाकांक्षा बड़ी-२ न होकर छोटी-२ सही, हमारा गाँव दो भागों में बँटा है एक नाले के इस ओर और दूसरा उस ओर, मगर गाँव एक ही है, अब तो सब पूरी तरह से लगभग एक सा ही हो गया है, उन दिनों जब कभी कोई त्योहार वगैरह या फिर गाँव में शादियाँ होती थी तो उस दूसरी तरफ के लड़के जो की उस समय अधिकतर शहरों में रहते थे तो वे गाँव आते रहते थे, और जब गाँव आते थे तो अपने साथ फल-फूल, मिठाई, अपने छोटे भाई-बहिनों के लिए लत्ते-कपड़े, खिलोने, दिवाली पर फुलझड़ी, बाम्ब, तथा अन्य प्रकार के छोटे-बड़े पटाखे लाते थे, दूसरी तरफ हमारी तरफ से एक-दो को छोड़कर कोई भी शहरों में नहीं था, जो थे भी तो वो अपने परिवारों के साथ रहते थे, तो वो २-३ साल में कभी कभार ही गाँव आते थे, तो मिठाई वगैरह खाने को कम ही मिला करती थी, उस समय मेरा भी शायद हो सकता है दूसरे बच्चों का मन भी करता हो, पर मैं तो अपने मन की बता सकता हूँ, तो उस समय मेरा मन करता था की काश हमारे बाखली ( मोहल्ले) के लड़के भी शहरों में होते तो हमारी बाखली खूब मिठाई आती और हमको भी खाने को मिलती, और हमें भी मजा आता, मैं आप सभी को एक बात और बताना चाहता हूँ कि शुरु से ही हमारे पहाड़ों में एक रिवाज है कि जो भी शहरों से नौकरी करके आता तो वह गाँव में बाँटने के लिए मिठाई जरुर लाता, और जैसे नई-२ बहुएंँ भी अपने मायके से ससुराल को आती या फिर चैत के महिने में भिटोली ( चैत्र के महिने में मायके वालों की तरफ से अपनी बेटी को दिया जाने वाला तोहफे के रूप में लत्ते-कपड़े के साथ- पूरियाँ या मिठाई ) के समय जो कुछ भी लाते या आता उसे पूरे गाँव में बाँटा जाता है, तब हमारा भी मन करता काश कोई आता अच्छी-२ टॉफियाँ, मिठाईयाँ या फिर फल-फूल लाता तो कितना अच्छा होता , ऐसा विशेषकर दिवाली या किसी अन्य त्योहार के समय ज्यादा होता, धीरे-२ हम भी बढ़े होते गये, और फिर एक दिन मैं भी शहर को आ गया, अब जब भी घर जाता हूँ तो ४-५ किलो मिठाई, फल-फूल और घर पर जाते समय बाखली के बच्चों को बाँटने के लिए टॉफी इत्यादि जरूर ले जाता हूँ, परंतु हमारे समय में तो बाखली में बच्चे भी बहुत थे, मानो हर घर से ४-५ बच्चे तो होंगे ही, और बाहर से आने वाले गिने-चुने लोग वो भी २-३ साल में एक बार, अब तो हर घर से कोई न कोई बाहर शहरों में रहता है, और हर महिने कोई न कोई गाँव जाते रहता, लेकिन अब बाखली में पहले की तरह बच्चे भी नहीं रहे , किसी का एक तो किसी के दो और उनमें से भी अधिकतर शहरों की तरफ आ चुके है़ं , इसलिए अब पहले की तरह बच्चे भी नहीं, साथ ही जो चीज शहरों में मिलती है वही सब वस्तुए गाँवों में भी आसानी से मिल जाती है, तो जिसे जब जो चीज चाहिए वो वहीं पर ले लेता है , इसलिए अब पहले जैसी बात भी नहीं रही, और हाँ गर्मियो में सभी जगह मई- जून में स्कूलों की छुट्टीयाँ पड़ जाती और गाँवों में अधिकतर शादियाँ भी उसी समय होती थी, तो हम लोग भी उस समय बड़ी बेसब्री से शहर से गाँव आने वालों का इंतजार करते रहते कि वो आएगा, फलाना आएगा, उसके चाचा आएंगे, उसका भाई आएगा करके, जो भी एक बार गाँव आता वो हमारा और हम उसके मित्र बन ही जाते, और बड़े खुश होते, और जब वो लोग छुट्टियाँ बीत जाने पर शहरों की तरफ जाते तो हमको बहुत बुरा लगता और उस रात तो हम खाना भी नहीं खाते, भूखे ही सो जाते, ऐसी थी उस समय गाँव की जिंदगी, लेकिन आज की शहरों की जिंदगी से तो बड़ा ही आनंद आता था गाँव की उस जिंदगी में, लेकिन अपने दिनों को याद करते हुए जब भी गाँव जाता हूँ तो कभी भी खाली हाथ नहीं जाता, क्योंकि मुझे पता है अपने घर में खाने को चाहे कुछ कितना बढ़िया ही क्यों न मिल जाए मगर उससे ज्यादा आनंद तो बाहर अर्थात दूसरे के घर से आयी चीज में होता है, चाहे वो खाने को बिल्कुल थोड़ा सा ही क्यों न मिले, उसमें जो प्यार और अपनत्व की महक होती है उससे उसका स्वाद कई गुना बढ़ जाता है, इसीलिए मेरे बाल मन में उस समय ऐसी बाल इच्छाएँ अक्सर जन्म लेती रहती थी, और हाँ दुख केवल इस बात का नहीं होता था कि हमें मिठाई या फिर कुछ और खाने को नहीं मिली बल्कि दुख तो इस बात का होता की काश कोई हमारा भी शहरों से आता!
हरीश बिष्ट "शतदल"
रानीखेत || उत्तराखण्ड ||
VJTM438045IN
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