*◆ चौपइया छंद [सम मात्रिक] ◆*
धान~
{4 चरण समतुकांत,प्रति चरण 30 मात्राएँ,
प्रत्येक में 10,8,12 मात्राओं पर यति
प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत,
जगण वर्जित, प्रत्येक चरणान्त में गुरु(2),
चरणान्त में दो गुरु होने पर यह छंद
मनोहारी हो जाता है।}
अति भये दुखारे,तकि-तकि हारे,
जड़-चेतन अकुलाने।
चक,पिक,बक,दादुर,परम भयातुर,
तरु-पल्लव मुरझाने।।
वन,उपवन,निर्झर,कूप,नदी,सर,
उरग,मकर अरु मीना।
खग-मृग मानहिं डर,चिंतित हलधर,
हैं सब प्रकृति अधीना।।
जे कवन सुभीते, ले घट रीते,
गेह फिरहिं पनिहारी।
बह ऊष्ण समीरा,हृदय न धीरा,
पंथहिं पथिक दुखारी।।
जल बिन कठिनाई,महि अकुलाई,
विनय करत करजोरी।
हे दीनदयाला, "सोम" कृपाला,
करहुँ सुरत प्रभु मोरी।।
*~शैलेन्द्र खरे"सोम"*
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