-* ग़ज़ल *
बहर-221 2122 221 2122
काफ़िया- आन
रदीफ़- लेकर
तेरे बिना करूँ क्या सारा जहान लेकर
जाऊँ कहाँ पे दिल का खाली मकान लेकर
माना बड़ा यकीं है चाहत पे फिर न जाने
रोने लगे लिपटकर मेरा बयान लेकर
दे दीजिये मुझे बस यादें वही सुनहरीं
मैं क्या करूँ बताओ ये आसमान लेकर
बस्ती ये बेईमानों की हर गली अँधेरी
बैठूँ कहाँ शराफ़त की मैं दुकान लेकर
ये सोचकर हमेशा सोता हूँ अश्क भरके
शायद कभी खुशी भी आये विहान लेकर
शैलेंद्र"सोम" मुझको करने वो कत्ल आये
जिनके लिये खड़ा था हाथों में जान लेकर
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
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