*गीत*
*मापनी~*
212 2212 2212 2212
जो खड़े सैनिक वहाँ नित शान मेरे देश की|
कब डरे है शत्रुओं से जय सदा परिवेश की||
सामने हो काल चाहे भाल पर माँ भारती|
शोणितों की बूंद से जाबांज करते आरती|
शीश धड़ से कट गये पर लड़ गये वो जंग को|
शत्रु की बोटी कँपी लख सामने उत्तुंग को|
धूप वर्षा में खड़े गति कम नहीं आवेश की|
कब डरे है शत्रुओं से जय सदा परिवेश की||
देश पर अनुराग ऐसा फूल की सेजें तजी|
धन्य समझा स्वयं को तब देह कांटों पर सजी||
भूलती है नित सियासत सैन्य के उपकार को|
याद रक्खेगी कलम तो ओज के विस्तार को||
छू सकी ना कल्पना जो वो मिशाले पेश की|
कब डरे है शत्रुओं से जय सदा परिवेश की||
सिंहनी के दूध का सच कर्ज हावी था बड़ा।
पीठ पर ना घाव थे वो जंग को ऐसे लड़ा।।
चांद तारे सूर्य धरती गान करते वीरता|
भारती के लाल नित रिपु वक्ष को यों चीरता।।
है नमन हर मात को अरु राखियाँ संदेश की।
कब डरे है शत्रुओं से जय सदा परिवेश की।।
~जितेन्द्र चौहान "दिव्य"
वाह वाह मित्र। लाजवाब । माँ की कृपा बनी रहे।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय दादा श्री
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