* ग़ज़ल *
बहर~ 2212, 122 , 221 ,2122
मासूम हर अदा है, मुखड़ा गुलाब जैसा
देखा न और कोई , हमनें जनाब जैसा
जितना भुला रहा हूँ,उतना सता रहा है।
भूला नही भुलाये, बाकी हिसाब जैसा
देखा मगर कहाँ पर,कुछ भी न याद आता।
कुछ याद सा मुझे है, भूली किताब जैसा
शरमा गये अदा से, नज़रें चुरा चुराके।
रुख पर हया कयामत,ओढ़े नकाब जैसा
ये काश इक नज़र जो मिलती नज़र हमारी
तो "सोम"आज हमको होता न ख्वाब जैसा
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
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