-◆ग़ज़ल◆
काफ़िया-अर
रदीफ़- जा रहा है
बह्र-1222 1222 122
मेरे दिल को दुखाकर जा रहा है
कोई मुझको सताकर जा रहा है
बिखरती जा रही है रोशनी सी
वो जो यूं मुस्कुराकर जा रहा है
हुई अब इसलिए नासाज़ तबियत
कोई बिजली गिराकर जा रहा है
निकल आये जो आँसू क्या करूँ मैं
कोई सपनें चुराकर जा रहा है
हुई कुछ आज हरक़त संग-दिल में
मुझे कोई रुलाकर जा रहा है
फ़कत अब"सोम"क्यों रोकें उसे जो
सभी वादे भुलाकर जा रहा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
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