-◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- आ
रदीफ़- रहा हूँ
बह्र-12122×4
चले भी आओ कहाँ हो हमदम
मैं कब से तुमको बुला रहा हूँ
वफ़ा कभी जो की मैंने तुमसे
उसी को अब आज़मा रहा हूँ
भुला दिया मैंने दिल से तुमको
कभी न तुम मुझको याद करना
तुम्हारी यादों का आख़िरी ख़त
भी आज लो मैं जला रहा हूँ
नहीं समझता जो दर्द मेरा
चला उसे हाले दिल सुनाने
मैं भी तो पागल हूँ एक अंधे
को आइना जो दिखा रहा हूँ
सहे हजारों सितम जहां के
शिकन न चहरे पे एक आई
जो जान लेकर भी तुम चले तो
अभी भी मैं मुस्कुरा रहा हूँ
गुजार दी सारी रात मैंने
तुम्हारे आने की आरजू में
हुई है सुब्हा जो तुम न आये
चराग़ दिल के बुझा रहा हूँ
निकल गए हैं करीब से वो
उड़ी जो खुशबू पता चला है
दिखे जहाँ तक मैं"सोम"उनको
बस एकटक देखता रहा हूँ
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
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