Saturday, January 19, 2019

श्रीमन्नारायणाचार्य "विराट"

रस       -अद्भुत रस।
आलंबन-हनुमान का रूप।
आश्रय-  लंकनी,देव यक्ष।
उद्दीपन -चमत्कारिता।
अनुभाव- जिज्ञासा।
संचारी भाव-दैन्य, ।
स्थायीभाव-विस्मय ।

सचेत  लंकनी  रही  , समुद्र  द्वार  दक्षिणी।
निशाचरी  भयंकरी  अपूर्व  राज्य  रक्षिणी।
प्रमाद दृश्य देख के  विवेकता दिखा दिया।
विशाल देह मारुती समूच सूक्ष्म पा लिया।
विचित्र  चित्र से  असह्य  लंकनी पुकारती।
अमान्य कार्य से स्वयं  प्रकोप रोष धारती।
कभी यहाँ, कभी वहाँ , अनूह्य ढंग से बढ़े।
सुडौल कर्ण से कभी , सपाट नाक में चढ़े।
द्विअक्ष  चक्र सा फिरै, पराभवी निशाचरी।
थकान और क्षीणता, विहीनता  हिये भरी।
विकार रूप  जानने,  द्विहस्त जोड़ने लगी।
स्वरूप दर्श चाहने  सुभावना  हिये जगी ।
तभी  कपीश आंजनेय  ने  विराटता  धरा।
महा  महादि  देव  यक्ष नैन विस्मयी झरा।।

             श्रीमन्नारायणाचार्य "विराट"

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