Sunday, January 6, 2019

गज़ल संग्रह :- शैलेन्द्र खरे"सोम" जी

-◆ग़ज़ल◆

बहर~1212 1212 1212 1212
काफ़िया-आब
रदीफ़-देखिये

खिली  कली  बहार की है  क्या जनाब देखिये
सुरूर   ही    सुरूर   से  भरा   शबाब  देखिये

हसीन  कौन  आपसा  गिरा रहे  हो बिजलियां
खिलाखिला बदन है ज्यों खिला गुलाब देखिये

निकल पड़ा है चाँद  आज बादलों से  झाँकता
यही  लगा  जो  आपका  उठा  नकाब  देखिये

गली-गली  जुबां-जुबां जहाँ भी  देखो जिक्र है
दिया  खुदा  ने    रूप   रंग   बेहिसाब  देखिये

कोई कहे  खुमार  तो  किसी किसी ने  यूं कहा
भरी   हुई    गिलास    में   नई   शराब  देखिये

गजब  हुआ जो नोट बंदी चार  दिन अभी हुई
हुये    सफेदपोश     कितने   बेनकाब  देखिये

बिना  किये  प्रयत्न तो  मिले न "सोम" कारवाँ
फ़क़त यूँ  ही पड़े पड़े कभी  न  ख्वाब देखिये

                                   ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बहर-221 1222 221 1222
काफ़िया-आर
रदीफ़- तुम्हारा है

सच  आज  कहूँ  दिलवर आभार  तुम्हारा है
जो   साँस   चले    मेरी   ये  प्यार  तुम्हारा है

रंगीन    रहे  हर   दिन  हर  शाम  गुलाबी हो
होता   जो   रहे   यूं  ही    दीदार   तुम्हारा है

तुम  दूर  गए  जब-जब ये  साँस  लगी थमने
जां पर भी सनम अबतो अधिकार तुम्हारा है

जाते हो, चले   जाओ,  आओगे  अभी  दौड़े
यूं    रूठ    चले   जाना    बेकार   तुम्हारा है

दिल  खूब  करे  घायल  मासूम अदा कातिल
ये   रूप  यही   समझो  हथियार   तुम्हारा है

कुछ भी न गिला शिक़वा ये"सोम"मुहब्बत में
हर   दर्द   मुझे   हमदम   स्वीकार  तुम्हारा है

                                ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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गज़ल

रंगीन    रातें   दिन  भी  सुहाने  कहाँ  गए
फुर्सत  के   दोस्तों  वो  ज़माने  कहाँ  गए

मिलता सुकून दिल को घड़ी दो घड़ी जहाँ
अब  दिन  हवा  हुए वो  ठिकाने कहाँ गए

करते थे  सौ   शिकार  अजी  एक  वार में
कातिल  निगाह  के वो  निशाने  कहाँ गए

गिरते  थे  लडख़ड़ाके मुझे  देखते  ही वो
बातें    हसीन     झूठे   बहाने   कहाँ  गए

नासाज़  दिल  का साज, हुई  तर्ज बे बहर
जो  गूँजते  थे  दिल  के  तराने  कहाँ  गए

जीवन  की  भागदौड़ में मिलना न भूलना
सब  तो  यहीं   हैं  दोस्त  पुराने  कहाँ गए

देखे हैं कितने रंग मुहब्बत के "सोम" अब
था  इश्क  जिनका  दीन  दिवाने कहाँ गए

                               ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बहर~212 1222 212 1222
काफ़िया-आरा
रदीफ़- है

आपके    बिना   साथी  कौन  अब हमारा है
और  तो  सभी  ने  ही कर  लिया किनारा है

वक्त  के  थपेड़ों   ने  जख्म   दे   दिए  गहरे
मिल  गया  सुकूं  अब  जो आपने निहारा है

है  बड़ा करम मालिक आपका  ये  बन्दों पे
शख्स   आज  दुनिया  में  कौन  बेसहारा है

दूर   हो  गए साये  कुछ   दिनों  से लगता यूं
आजकल  तो गर्दिश  में  जानिए  सितारा है

आपकी इनायत कुछ इसतरह मिली मुझको
तब  करीब   ही  पाया जब  कभी पुकारा है

"सोम" ढूँढ़ते  कोई   हमसफर   मिले  प्यारा
अब  नही  यूं   ही  तन्हाँ  हो  रहा  गुजारा है
                      
                                  ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ ग़ज़ल ◆

बह्र-122 122 122 122
काफ़िया-आरे
रदीफ़-सलामत

नज़र भी  सलामत नजारे सलामत
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत

गिराते  रहो   बिजलियाँ यूं दिलों पे
हसीं शोख़  कातिल इशारे सलामत

नहाते   रहो   इश्क   की  रोशनी में
रहें जबतलक  ये  सितारे  सलामत

दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभीने
बहुत है जो ग़म  के सहारे सलामत

हुई  एक  मुद्दत  मुझे  उनसे बिछुड़े
बुझी  आग  लेकिन शरारे सलामत

उठा जो कभी  कोई' तूफान तो भी
उफनती ये  मौजें  किनारे सलामत

यही सोच  तो "सोम" करते दुआ हैं
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत

                       ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बह्र-122 122 122 122

मुहब्बत में ऐसे न दिल को जलाओ
खड़े दूर क्यों हो जरा पास आओ

करूँगा हिफाजत हमेशा  तुम्हारी
मेरी जान अपना मुझे तुम बनाओ

शहादत सदा जिसके दिल में रही है
सुनो आज उसको नही यूं भुलाओ

वतन है अमानत ये जिनकी सुनो जी
बड़े ही अदब से उन्हें सर झुकाओ

पढूँ नज्र में  जो  इबारत लिखी है
कभी पास आकर  तो नजरें मिलाओ

शरारत न हो जाये मुझसे, सुनो तुम
अदाओं से यूं बिजलियाँ  मत गिराओ

ख़ज़ालत बहुत मेरे महबूब में है
हवाओं सुनो  पास  उसके  न जाओ

इनायत सदा साथ तुम यार रखना
किसी भी तरह से मुझे आजमाओ

करूँ तो शिकायत करूँ और किससे
अगर जो तुम्हीं मुझको दोषी बनाओ

बहुत रो लिया अब हरारत हुई है
चलो "सोम" यूं ही जरा मुस्कुराओ

               ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है
बह्र-1222 1222 122

मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है
अभी बर्बादियों का  सिलसिला है

फिरा  सारे   जमाने   में  भटकता
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है

निगाहों से पिलाया क्या? बता दो
उतरता  ही   नहीं   कैसा  नशा है

इरादों  में  बुलंदी  हो  तो  समझो
तुम्हारे   सामने  अम्बर   झुका है

जिसे अहसास अपनी भूल का हो
नहीं  उसके   लिये  कोई  सजा है

कहूँ आबाद  कैसे  इस  जहां को
यहाँ  कोई  नहीं  हँसता  दिखा है

परेशां "सोम" दुश्मन  इसलिये भी
बचा  लेती  मुझे  माँ  की  दुआ है

                     ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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*गजल*

काफ़िया-आने
रदीफ़-याद कुछ
बहर-2122 2122 212

मौज के वो दिन सुहाने याद कुछ
दोस्त है मुझको  पुराने याद कुछ

पेड़ पर चढ़  टहनियों  से झूलना
खूब मस्ती  के  जमाने याद कुछ

अपना भी तो वक्त आएगा कभी
कहके  गाते  थे तराने, याद कुछ

दूर    जाके    बैठना    एकांत  में
अबतलक हैं वो ठिकाने याद कुछ

सोम वो दिन ढूँढ़िये अब तो कहाँ
वक्त के फिसले फसाने याद कुछ

                   ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया-आओ
रदीफ़-आप जो

एक  पल  जी  लूं  खुशी  से पास आओ आप जो
बैठ   कर   पहलू   में'   मेरे   मुस्कुराओ  आप जो

आज  हम  अपने   शह्र   से   देखते   हैं  चाँद को
कम  हो   दूरी  चाँद  से  नजरें  मिलाओ आप जो

जान  इतना   जानिए    ये  जिंदगी   हो  खुशनुमा
नाम   का    सिंदूर   मेरे   जो   लगाओ  आप  तो

माप  लें  इक  दूसरे    की   सासों'  की  गहराइयाँ
आज  मुझको  भी डुबो  कर डूब जाओ आप जो

अबतलक  अपने   मुझे   हर   दौर   तड़फ़ाते  रहे
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो

आँसुओं  से  ही  लिखी  है  अपने दिल की दास्ताँ
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो

"सोम"  इश्को  आशिकी  में   यूं  कई  शायर  बने
इक ग़ज़ल मैं भी  लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो

                                      ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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ग़ज़ल

बहर-2122  1212  22
काफ़िया-आने/रदीफ़-से

रोज   हँसिये किसी  बहाने से
खून   बढ़ता  है'  मुस्कुराने से

आपको   ही  यकीं  नहीं  मेरा,
तो  भला  क्या कहूँ ज़माने से।

एक  कोई  तो  खास  होता है,
भूलता   जो   नही  भुलाने से।

भूल  सकते   नही  मुझे यूं ही,
यार   ऐसे   नज़र   चुराने  से।

आप दिल के  करीब रहते हो,
दूर   होते   न   दूर   जाने  से।

"सोम"जब वक्त रूठ जाता है,
कोई'  आता   नही  बुलाने से।

             ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

2122 1212 22

प्यार  जिसका  करीब  होता है
वो    बड़ा   खुशनसीब होता है

यार मिलके  न   मुस्कुराये जो
कितना दिल  का गरीब होता है

कत्ल कर दूँ अभी मैं लगता यूं
सामने    जब   रकीब  होता है

जान  मांगे  तो  दे  ही  दी जाए
कोई   ऐसा    हबीब    होता है

"सोम"किसको सुनायें हाले-दिल
सबका  किस्सा  अजीब होता है

                 ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

काफ़िया- ई
रदीफ़- है
बहर-2122 1212 22

माँ   तेरी   खूब    याद  आती है
हर   बला    से   मुझे  बचाती है

साथ  साँसों के  आती  जाती है
मेरी   रग-रग    में  मुस्कुराती है

वो  मुकद्दर   का   सिकंदर होता
जिसको  झूला  हवा  झुलाती है

एक  दिन  तो  चली  ही जायेगी
घर   में   बेटी   नहीं   समाती है

पेट   भरता  न  इसलिए  शायद
रोटियाँ    माँ    नहीं   पकाती है

बैठना   बोलना    या   शरमाना
हर   अदा   आपकी  लुभाती है

लोग  कहते   हैं   शोर  ये कैसा
रामधुन   जो   कहीं   सुनाती है

ठोकरों  में    मुझे   मिला  सोना
"सोम"किस्मत ही जगमगाती है

                ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बहर-1222×4

सभी के मन में बस जाये उसे सृंगार कहते हैं
सुहानी   शाम  महकाये  उसे  सृंगार कहते हैं

नज़र देखे नजारा साँस भी थम जाये ये जानो
निगाहों में  जो इठलाये  उसे  सृंगार  कहते हैं

सभीका चैन भी छीने जगादे दिलमें कुछ अरमाँ
अदाओं में जो  लहराये  उसे  सृंगार   कहते हैं

मिलन मनमीत से हो जाये कोई भी बहाना हो
जतन ऐसा जो  करवाये  उसे सृंगार  कहते हैं

जुवां ख़ामोश हो लेकिन कहे सब सोम हाल-ए -दिल
इशारों  में  जो  बतलाये  उसे   सृंगार  कहते हैं

                                     ~शैलेंद्र खरे"सोम'

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◆ग़ज़ल◆

बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ

मैं  पागल  सायों   के  पीछे-पीछे   भागा  करता हूँ
वीरानों  में  गीत  मिलन  के अक्सर गाया करता हूँ

अब केवल मयखाने में  ही  चैन  मे'रा दिल पाता है
मन्दिर मस्जिद की राहों  पर मैं तो बहका करता हूँ

क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया
गैरों से  आंसू  लेकर  मैं भी    तो   रोया  करता हूँ

कलकी भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया
लिख देता हूँ रोज  वसीयत जब मैं सोया करता हूँ

मैं अज्ञान कला क्या जानूँ कुछभी सीख नहीं पाया
पर इतना संज्ञान है'मुझको कागज काला करता हूँ

लगते  हैं  अपने   बेगाने  भूला  बस्ती  हस्ती  सब
अपने घर की  राह सभी  से मैं खुद पूछा करता हूँ

कोई बात  हुई  ऐसी  जो  मुझको  भी मालूम नहीं
क्यूँ  तेरे  बारे   में  खुद  से ज्यादा सोचा करता हूँ

सोम भला कैसाशिक़वा जो कोई अपना खास नहीं
अपनों  के  कारण  अपनों  को रोते देखा करता हूँ

                                       ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बह्र-212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा

जान भी  जायेगी  ये   जिगर  जाएगा
ऐसे देखो न  आशिक तो  मर जाएगा

फूल  नाज़ुक  है ये  इसको  छूना नहीं
टूटकर बस जमीं पर   बिखर  जाएगा

है   नशा   तो   अभी   मैं    शहंशाह हूँ
ये  नशा  रात   भर   में  उतर  जाएगा

चैन  पाता  नहीं  अपने   घर  में अगर
जा  रहा है तो  जा  तू  किधर जाएगा

कुछ निकल जायेगी आँसुओं में तपन
वक्त के  साथ  हर  जख़्म भर जाएगा

खुद   तमाशा   बनेगा   वो   संसार में
जो  मेरे  दिल  से  यूं  खेलकर जाएगा

मत पढ़ो  जोर  से सुर्खियां आजकल
पेट  में  भी  जो  बच्चा है डर जाएगा

रंगतों   के    लिए   भागना    छोड़ दे
तितलियाँ  तो मिलेंगीं  जिधर जाएगा

"सोम"रुख से अगर वो हटा दें नकाब
वक्त  भी  एक  पल को  ठहर जाएगा

                        ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है

किसी  की  चाह  यूं  दिल में दबी है
कहूँ    कैसे    बड़ी    ही   बेबसी है

जहाँ   भी    देखता    हूँ   तीरगी है
दिनों-दिन   बढ़   रही   आवारगी है

उदासी  के   भँवर    में   चाँद  डूबा
बहुत   सहमी   हुई   सी  चाँदनी  है

नहीं  परवाह  मुझको  मुश्किलों की
डगर    काँटों   भरी    मैंने   चुनी है

चले  आओ  मेरे   दिलवर  कहाँ हो
हवा  रूख़ी  फिज़ा  भी  अनमनी है

जिसे   है  टूटकर   मुझसे   मुहब्बत
करे  गुस्सा   कभी   तो  लाज़मी  है

कहो  किसको  पता कब रूठ जाए
बड़ी    ही   वेवफ़ा    ये  जिन्दगी है

गले लग जा कयामत आ लिपट जा
पता   किससे   मेरा   तू   पूछती  है

सजाये   कौन  टूटे   ख़्वाव   हैं  जो
बड़ा  ही  मतलबी   अब  आदमी है

अँधेरों  से  निकल  कर "सोम" देखो
जहां   में   रोशनी    ही    रोशनी  है

                        ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

बहर~122 122 122 122

मुझे  याद  ऐसे   भी'  आया  न कीजे
बहुत रो  लिया अब  रुलाया न कीजे

गए  भूल  खुद  को  तुम्हारे लिए जो,
उन्हें  जिंदगी   भर  भुलाया  न कीजे

सुनो   हुश्न   वालों   जमाना  बुरा  है,
खुलेआम  चिलमन  उठाया  न कीजे

बहुत ही जरूरी है' कुछ राज रखना,
सभी को सभी  कुछ बताया न कीजे

अगर चाय भी जो पिला न सको तो,
किसीको भी' घरपर बुलाया न कीजे

सभी की नियत आये' हो चीज कोई,
उसे  अपने' घर  में  सजाया न कीजे

खड़ा  पास  में   वक्त  बेवक्त  है जो,
अदा  शुक्रिया  कर  पराया  न कीजे

नही   देखते  "सोम" नजरें  उठाकर,
मुहब्बत  में'  ऐसे   सताया  न कीजे

                        ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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◆ग़ज़ल◆

काफ़िया-आना
रदीफ़- हो गया
बह्र- 2122 2122 2122 212

आप जो  आये  तो  ये  मौसम  सुहाना हो गया
शुक्रिया,   बेज़ार  दिल   मेरा   दी'वाना हो गया

बस  कयामत  ढा रही   है  आपकी  ये सादगी
आपकी  नज़रों  का  मैं  जैसे  निशाना हो गया

तंग  गलियों  से  गुजर के  उनको  छूना याद है
छोड़िए अब  क्या कहूँ  क़िस्सा  पुराना हो गया

कुछ दिनों से शाम को  छत पर टहलते रोज वो
घूमने  का  मुझको  भी  अच्छा  बहाना हो गया

जिंदगी  में  आ  गया   है  कोई  यूं  लेके  बहार
अब किसी के दिल में भी मेरा  ठिकाना हो गया

खुल गया जो एक मयखाना तो फिर मत पूछिए
शह्र  का    माहौल    सारा   शायराना  हो  गया

फेसबुक  से  आशिकी, वादे-वफ़ा,आसां है सब
"सोम"फिर भी लोग कहते क्या जमाना हो गया

                                    ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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ग़ज़ल

बह्र-1222*4

वतन  कोई   नहीं   ऐसा  वतन   जैसा  हमारा है
हमेशा   ही   रहा   अपना   बुलंदी  पे  सितारा है

तिरंगा  यूं  ही  लहराये  हमारा   शान  से  नभ में
चलें सब साथ  में मिलकर सभी का ही सहारा है

जमाना  जान ले  इतना  हमारी  माँ  है  ये धरती
छुये  दुश्मन   इसे   कोई  नहीं  हमको  गवारा है

न हिंदू हम न मुस्लिम हम नहीं हम सिक्ख ईसाई
प्रथम सब  हिन्द के  वासी  बहे नित प्रेम धारा है

पखारे सिंधु चरणों को हिमालय सा मुकुट माँ का
कहीं  भी  देखियेगा  "सोम" जन्नत का  नजारा है

                                     ~शैलेन्द्र खरे"सोम"

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