*ग़ज़ल*
1222 1222 122
ज़रा पागल, ज़रा नादान हूँ मैं।
मगर दिल का भला इंसान हूँ मैं।
समझता हूँ हकीकत ज़िन्दगी की
जहां में चार दिन मेहमान हूँ मैं।
मुझे कोशिश समझने की तो करिए
नहीं मुश्किल, बहुत आसान हूँ मैं।
भरा कमियों से होना लाजिमी है
फरिश्ता तो नहीं इंसान हूँ मैं।
जहां हँसता है मेरी मुफ़लिसी पर
ग़रीबी की बना पहचान हूँ मैं।
शिकायत कुछ नहीं करता कभी, पर
हकीकत से नहीं अनजान हूँ मैं।
सभी मुँह फेरते हैं देख *हीरा*
किसी दिल का नहीं अरमान हूँ ।
हीरालाल
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