*ग़ज़ल*
212 212 212 212
है शुरू दर्द का सिलसिला रोज ही।
ज़िन्दगी कर रही है दगा रोज ही।
मुझको मिलता नहीं उसका नामोनिशाँ
ढूँढता हूँ ख़ुशी का पता रोज ही।
क्या गुज़ारे कोई ज़िन्दगी चैन से
ज़ख़्म देती है दुनिया नया रोज ही।
बेवफ़ा, बेमुरव्वत तेरी याद में
दिल है रहता बुझा का बुझा रोज ही।
रब ही जाने ये किस दिन फलेगी मगर
माँगता हूँ मैं तेरी दुआ रोज ही।
दिन बदल जायेंगे कल इसी आस में
रात गुज़री है औ दिन ढला रोज ही।
जो किया ही नहीं उन गुनाहों की मैं
पा रहा हूँ यहाँ पर सज़ा रोज ही।
हाल मँहगाई का देख *हीरा* यहाँ
घुट रहा ख्वाहिशों का गला रोज ही।
हीरालाल
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