ग़ज़ल-1
122 122 122 122
नज़र को चुराने की आदत बुरी है।
तुम्हें स्वर मिलाने की आदत बुरी है।।
सदा आँख अपनी किये बन्द रखता।
यही तो जमाने की आदत बुरी है।।
समझने लगा है हमें वो तो कायर।
उसे यों मनाने की आदत बुरी है।।
यहाँ इस तरह से खुले अंग अपने।
सभी को दिखाने की आदत बुरी है।।
सफर में तुम्हारे कदम इस तरह से।
सदा डगमगाने की आदत बुरी है।।
जिसे याद रखना बहुत ही जरूरी।
उसी को भुलाने की आदत बुरी है।।
परेशान रहता हमेशा यहाँ जो।
उसे आजमाने की आदत बुरी है।।
यहाँ है जो कमजोर, लाचार, बेवश।
उसे यों सताने की आदत बुरी है।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-2
22 22 22 2
उससे कैसी यारी है।
जो करता गद्दारी है।।
छोड़ भला कैसे सकता।
खून में ही मक्कारी है।।
ये कैसी अफरा तफरी।
कैसी मारा मारी है।।
काला चश्मा पहने वो।
अप टू डेट भिखारी है।।
अब तक खूब इसे लूटा।
अब फिर से तैयारी है।।
वार नहीं खाली जाता।
वो दुर्दांत शिकारी है।।
नूतन खेल दिखाता नित।
अद्भुत यार मदारी है।।
कुत्ते नोच रहे इसको।
लगता ये सरकारी है।।
उससे ही वंचित है वो।
जिसका वो अधिकारी है।।
अंग प्रदर्शन वाली ये।
एक अलग बीमारी है।।
कुछ भी दाँव लगा सकता।
कितना बड़ा जुआरी है।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-3
122 122 122 12
चलो अब चलें दूर जाना भी है।
अभी लौटकर बन्धु आना भी है।।
रुको मत यहाँ देर होगी बहुत।
वहाँ पर समय कुछ बिताना भी है।।
चले जा रहे लोग अन्धे बने।
नहीं देखता ये जमाना भी है।।
बुझातीं रहीं आँधियाँ हैं जिसे।
वही दीप हमको जलाना भी है।।
नहीं दिख रहे दाग खुद के जिसे।
उसे आइना अब दिखाना भी है।।
मनुजता नहीं रास आती जिसे।
उसे कुछ सबक अब सिखाना भी है।।
दिलाता रहूँगा तुम्हें याद मैं।
अभी एक वादा निभाना भी है।।
नहीं देखता जो कि नीचे कभी।
हमें शीश उसका झुकाना भी है।।
नहीं मानता बात जो, अब उसे।
खरी और खोटी सुनाना भी है।।
यही कह रहा है खिला फूल ये।
अरे ज़िन्दगी मुस्कराना भी है।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल- 4
2122 2122 212
दूर अपने से नदी रक्खा न कर।
होंठ पर तू तिश्नगी रक्खा न कर।।
जो बने बाधक तुम्हारी राह में।
पास अपने वो सदी रक्खा न कर।।
हर समय रहता इसी में है खुदा।
यार दिल में गन्दगी रक्खा न कर।।
हौसले से काम लेना सीख ले।
ज़िन्दगी में बेवशी रक्खा न कर।।
ये तुम्हें कमजोर कर देगी बहुत।
आँख में हरपल नमीं रक्खा न कर।।
चार दिन की ज़िंदगी है इसलिए।
ज़िन्दगी में कुछ कमी रक्खा न कर।।
है बहुत जीवन तुम्हारा कीमती।
दाँव पर तू ज़िन्दगी रक्खा न कर।।
घेर लेंगे पथ अँधेरे इसलिए।
दूर खुद से रोशनी रक्खा न कर।।।
गर बचाना चाहते हो सभ्यता
दूर तो फिर सादगी रक्खा न कर।।
पृष्ठ है इतिहास का तू एक नया।
बुजदिली दिल में कभी रक्खा न कर।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-5
122 122 122 122
सभी फ़र्ज़ अपने निभाने की खातिर।
गया रोटियाँ वो कमाने की खातिर।।
विचारे बिना एक पल प्राण का है।
दिया दान उसने जमाने की खातिर।।
लिए हाथ में लेखनी चल पड़े हम।
उसे आइना अब दिखाने की खातिर।।
नहीं एक पल को हुआ जो अलग है।
खड़ा है वही दूर जाने की खातिर।।
कमर स्वयं कसकर खड़े हो गए हम।
सबक आज उसको सिखाने की खातिर।।
खड़ा हूँ प्रतीक्षा में कब से तुम्हारी।
तुम्हें बात वो ही बताने की खातिर।।
बहुत ध्यान रखता हमारा वही जो।
मिला जाम लेकर पिलाने की खातिर।।
खड़ा पंक्ति में वो बहुत देर से है।
जरा हाथ हमसे मिलाने की खातिर।।
वही अब हमारे पड़ा देख पीछे।
हमें हाथ धोकर मिटाने की खातिर।।
उधर देख लो आ रहा फिर हमारा।
यहाँ खून वो ही बहाने की खातिर।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-6
122 122 122 122
यही फ़र्ज़ अपने निभाने लगे हैं।
फसल आँसुओं की उगाने लगे हैं।।
जिन्हें सौंप दी हर खुशी ज़िन्दगी की।
हमें अब वही सब सताने लगे हैं।।
जिन्हें ज़िन्दगी का ककहरा पढ़ाया।
वही पाठ हमको पढ़ाने लगे हैं।।
जिन्होंने नहीं आँख खोली कभी भी।
हमें रास्ता वो बताने लगे हैं।।
जिन्हें आँख का लोग तारा समझते।
वही आँख उनको दिखाने लगे हैं।।
हुआ है अचानक ये बदलाव कैसा।
हमें देख वे मुस्कराने लगे हैं।।
वहाँ फिर रहे थे निठल्ले बने वे।
यहाँ चार पैसे कमाने लगे हैं।।
अँधेरा मिला राह में जब घना तो।
बुझे दीप फिर से जलाने लगे हैं।।
पकड़ कर जिन्हें हाथ चलना सिखाया।
वही सब हमें अब सिखाने लगे हैं।।
फ़साने की खातिर भले आदमी को।
वही जाल फिर से बिछाने लगे हैं।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-7
122 122 122 122
ये कुहराम कैसा मचा आजकल है।
हुई देश की क्या दशा आजकल है।।
कि चारों तरफ छा रहा है कुहासा।
प्रदूषित हुई ये हवा आजकल है।।
चलो और कोई दिशा में चलें अब।
यहाँ पर नहीं कुछ बचा आजकल है।।
है मुमकिन सभी कुछ नज़ारे निहारो।
कहाँ क्या नहीं हो रहा आजकल है।।
सभी कान अपने किये बन्द सुनते।
यहाँ चल रही जो कथा आजकल है।।
जहाँ शान्त सागर रहा है हमेशा।
वहाँ ज्वार कैसा उठा आजकल है।।
किया ही नहीं बन्धु अपराध जिसने।
उसे मिल रही क्यों सज़ा आजकल है।।
वही बाँटता रोज हमको उजाले।
उसी का हमें आसरा आजकल है।।
उसे प्यार का ये लगा रोग कैसा।
नहीं काम करती दवा आजकल है।।
उसे देख लो क्या हुआ जो हमें वो।
नहीं दे रहा बददुआ आजकल है।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-8
2122 2122 212
द्वार उसके आज जाना पड़ गया।
खूब सर्दी में नहाना पड़ गया।।
था नहीं वो पात्र उसके सामने।
शीश तुमको क्यों झुकाना पड़ गया।।
पास जिसके थी नहीं दिल की दवा।
क्यों उसे फिर दिल दिखाना पड़ गया।।
कौन मजबूरी रही बोलो भला।
आपको जो स्वर मिलाना पड़ गया।।
दर्द जब सँभला नहीं तब आँख से।
नीर हमको भी बहाना पड़ गया।।
आँख से दिखता नहीं बिल्कुल जिन्हें।
आइना उनको दिखाना पड़ गया।।
मन नहीं था किन्तु हमको भी वहाँ।
कुछ समय यों ही बिताना पड़ गया।।
प्यार उसने सच हमें इतना किया।
राज सब उसको बताना पड़ गया।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-9
2122 2122 2122 212
इश्क का होने लगा व्यापार तेरे शहर में।
है मुहब्बत का बड़ा बाजार तेरे शहर में।।
लौटकर वापस नहीं हम जा सके बस इसलिए।
मिल रहा हमको असीमित प्यार तेरे शहर में।।
इक जमाने से जिन्हें मैं ढूँढता फिरता रहा।
हो गया उनका मुझे दीदार तेरे शहर में।।
कह रहा है ये महकता सा मधुर वातावरण।
फूल कलियों की बहुत भरमार तेरे शहर में।।
सुबह आकर रोज़ ही अच्छी बुरी सारी खबर।
है बता जाता हमें अखबार तेरे शहर में।।
नित उचित उपचार इनको मिल रहा है इसलिए।
अब बहुत कम रह गए गद्दार तेरे शहर में।।
ये हवा बदली बदल वातावरण सारा गया।
इसलिए मैं हो गया बीमार तेरे शहर में।।
है तुम्हें शायद नहीं अब भी हकीकत का पता।
पल रहे कुछ आज भी मक्कार तेरे शहर में।।
दिख रहे हैं लोग पैरों पर खड़े अपने यहाँ।
एक भी दिखता नहीं लाचार तेरे शहर में।।
लौट जाने का नहीं मन हो रहा है आज भी।
सोचता हूँ आ गया बेकार तेरे शहर में।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-10
121 22 121 22
लगी इसी से भली है दुनियाँ।
कई रँगों से सजी है दुनियाँ।।
नहीं मिटाओ अरे इसे तुम।
किसी तरह ये बनी है दुनियाँ।।
जहाँ कहीं भी नज़र गई है।
वहाँ भी हमको मिली है दुनियाँ।।
जहाँ अँधेरे मिले वहाँ पर।
बड़े सवेरे जगी है दुनियाँ।।
अभी तलक जो जगे नहीं हैं।
उन्हें अँधेरी लगी है दुनियाँ।।
निकल कुएं से नज़र घुमाई।
उसे लगा तब बड़ी है दुनियाँ।।
जहाँ तलक तुम इसे समझते।
वहाँ तलक ये बसी है दुनियाँ।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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ग़ज़ल-11
212 212 212
शौर्य के गीत गाते चलो।
फ़र्ज़ अपने निभाते चलो।।
आँधियों से बुझे जो कभी।
दीप वे भी जलाते चलो।।
सो रहे नींद गहरी यहाँ।
आप उनको जगाते चलो।।
राह में जो भी बाधक बनें।
वे निशां भी मिटाते चलो।।
नित मिलाकर चलें जो कदम।
हाथ उनसे मिलाते चलो।।
जख्म देते रहें वे भले।
आप मरहम लगाते चलो।।
फिर रहे जो भटकते यहाँ।
राह उनको दिखाते चलो।।
गा न पाया जमाना जिन्हें।
गीत वे गुनगुनाते चलो।।
हो सके तो उन्हें बन्धुवर।
कुछ सबक भी सिखाते चलो।।
देख कर लोग हैरान हों।
इस तरह मुस्कराते चलो।।
राम लखन शर्मा ग्वालियर
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