Wednesday, May 15, 2019

चौपाई छंद आ० सहिष्णु जी

*चौपाई छंद (दोहा सहित)*
(वाल्मीकि रामायणान्तर्गत "श्री राम द्वारा विप्र त्रिजट" को दान का प्रसंग)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
चौ०~
कानन वास निरत कछु काला |
'गर्ग गौत्र भूसुर' मतिशाला ||
नामहुँ 'त्रिजट' लोक पहिचाने |
साधन हीन जीविका छाने ||
दो०~
सो नित उपवासहि निरत,
रहहि रहित धन भीत |
अति कृश काया बरण तन,
निशदिन होवत पीत ||
चौ०~
सुधा शमन हेतुक नित जाते |
कानन कन्द-मूल फल पाते ||
संग रखहि हल फाल कुदाला |
खोज भोग नित बनहि विशाला ||
आपु तु त्रिजट जरठपन जोई |
तिनहि नारि तरुणी सम होई ||
कहत नाथ प्रति त्रिजटहि नारी |
तनय निकट गहँ बचन सुधारी ||
प्राणनाथ जद्यपि पति देवा |
दारा हेतुक सुरहि महेवा ||
इहहि बचन अनुसारहि दाता |
हम अधिकार नहीं कछु गाता ||
हम आयसु देवनु नहँ जोगा |
तदपि भक्त तव हम-सब योगा ||
सो अनुरोध विनययुत मोरा |
हित चिन्तन कारक सब ओरा ||
दो०~
फेंकिअ फाल कुदाल सब,
अरु मम कथ अनुसार |
मिलहुँ जाइ धर्मज्ञ सुधिअ,
रामचन्द्र दातार ||
चौ०~
जो प्रिय इहहि करहुँ सुत ताता |
अवसि मिलहि कछु रामहि दाता ||
सुनत बचन निज पटुतर नारी |
मानहुँ विधि अबु काज सुधारी ||
फटिक धोति तन जाय न औढ़ी |
धार काय प्रति रामहि ढ्यौढ़ी ||
मन उछाह धरि मारग जाते |
जिहि दिशि रामु भवन सबु पाते ||
पग कंकर अरु शूल चुभाते |
तदपि गमनरत हरि गुन गाते ||
उदर अहारहि कण नहि पाया |
पिंजर सम दीखत तिहँ काया ||
पेट-पीठ पहँ जुड़ि इमि लागै |
जिमि दुइ पानु जुरे इक सागै ||
अति कृशकाय रुधिर नहँ थोरा |
कछुक पवन काँपत अति जोरा ||
दो०~
बरनन विप्रहि दशा किमि,
संभव नहँ कछु भाँति |
अति पीड़ित दुर्भाग रह,
कहि न जाय आराति ||
चौ०~
सहजहि पूरण मारग कीन्हा |
मति इक धार रामु गृह चीन्हा ||
महामुनिहि मनो भृगु अंगिरा |
सम शोभित मुनि त्रिजटहि धीरा ||
बेगिअ पार रामु गृह पाया |
बीच महाजन तिहँ समुदाया ||
बिनु किमि बाध त्रिजट मुनि थोड़ी |
पहुँचि रामु गृह पाँचव ढ्यौढ़ी ||
तदपि न रोकि-टोकि किमि होई |
अपर मान दायहुँ सबु कोई ||
तुरत काल कछु रामहि पाये |
विप्र त्रिजट इमि बचनहि गाये ||
महाबली नृप तनय कुमारा |
हम निर्धन अति पीड़ित भारा ||
एकु सुनारि बहुत सुत मोरे |
रखहि आस सबु भाँतिक जोरे ||
दो०~
नहँ हम हाथहि जीविका,
नहँ अपि गेह कुमार |
सदा वास बन इतहि-उत,
तुम हम भागु सुधार ||
चौ०~
आजु आपु हम किरपा जोई |
निश्चय एकु न आपद होई ||
तब प्रिय अवधहि रामु सुखाये |
कछुअ मोद धरि बच यूँ गाये ||
ब्रह्मन आपु पूज्य सम ताता |
हम केवल साधन बस दाता ||
तदपि लोक समुझहि धनवाना |
आपु भाँति जन सब इहँ माना ||
अरु हम निकट अवसि बहु माना |
धन मनि मानिक भाँतिक नाना ||
अगणित धेनु रहहि हम आसा |
इहँ महँ एकु सहस अब पासा ||
आजु दान रत हम सुख लाई |
सहस धेनु अबहुँक नहँ दाई ||
सो अबु विप्र आपु हित पाऊ |
दण्ड हाथ धरि शाला जाऊ ||
दो०~
जिहिक तलक इहँ दण्ड कर,
फेंकहुँ आप प्रमान |
तिहहि तलक सब धेनु तब,
गहहुँ आपु शुभ मान ||
चौ०~
इहि सुनि विप्र मोद अति पाये |
तत्पर तुरत दण्ड धर आये ||
जाय धेनुकालय अति क्षिप्रा |
मुदित महा अति निज मन विप्रा ||
छोर धोति निज भलित उमेठे |
आपु सुघर कटि भाग लपेटे ||
औरु प्रान कर इक ठहँ पूरे |
दण्ड हाथ धरि छेत्रहि घूरे ||
प्रबल वेग फेंकिअ कर दण्डा |
मनहुँ विप्र कर अस्त्र प्रचंडा ||
आजु पलटि निज भाग रखाये |
इहि बिचार सुधि बल तन पाये ||
छूटिअ दण्ड विप्र शुभ हाथा |
उड़ित पार सरयू गुन गाथा ||
गिरहि भौम सहसहुँ बिच धेनुक |
गोष्ठ छोर पग वृषभहि रेनुक ||
दो०~
धर्मरूप श्री राम तब,
त्रिजट लगावट अंक |
मनो आजु बिधि आपु कर,
दारिद हरहि कलंक ||
चौ०~
महामुदित मुनि त्रिजटहि चरणा |
नमन करत राघव जग शरणा ||
आपु करहि कर थामत विप्रा |
गवनु कीन्ह जहँ दण्डहि क्षिप्रा ||
मनहुँ आजु खुद तारनहारे |
त्रिजट मुनिहि सुधि आपु सहारे ||
उचित ठौर पहुँचहि सब दाये |
जेतिक धेनु विहँसि मुनि पाये ||
सेवकु लावत रामहि गाते |
धेनुहि त्रिजट गेह पहुँचाते ||
पुनिअ कहत मुनि देत दिलासा |
विप्र देव तुम जग इक आसा ||
गर्ग वंश शुभ त्रिजटहि नामा |
ब्रह्मन आशिष तव सिर रामा ||
बिनु विकार हम कीन्ह विनोदा |
हम मानत परिहासहि बोदा ||
तदपि न मानहुँ भेद कछु,
औरु न विपरित आव |
हम बालक तुम देव जग,
स्नेहिल सरल सुभाव ||
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
©भगत

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