गीत
शीर्षक:- किताबों का दर्द
खुदकुशी का गीत गाती हैं किताबें।
अश्क आखों से बहाती हैं किताबें।।
दूर हमसें क्यों यहाँ सब हो रहे है।
ख्वाब में हमको बुलाती हैं किताबें।।
जब हमारा था समय विस्तार व्यापक।
शौक क्यों कम हो गया देखों यकायक।।
अब समय की मार मुझ पर भी पड़ी है।
वरना थे हम भी कभी सृष्टि के नायक।।
सच व्यथा कह कर रुलाती हैं किताबें।
खुदकुशी का गीत गाती हैं किताबें...
पुस्तकालय अब कोई जाता नहीं है।
लगता है मानव से अब नाता नहीं है।।
थी पसंदीदा सभी वो पत्रिकाएं।
अब वहाँ कोई मुझे पाता नहीं है।।
माँ की लोरी बन सुलाती हैं किताबें।।
खुदकुशी का गीत गाती हैं किताबें...
जन्म से ही साथ मृत्यु तक टिका था।
होना ना लाचार उसमें ये लिखा था।।
ज्ञानरूपी दीप प्रज्वलित कर जहां में।
तम का करने नाश ख़ुद ही मैं बिका था।।
सत्यता का मार्ग दिखलाती किताबें।
खुदकुशी का गीत गाती हैं किताबें....
आ गया डिजिटल जमाना आ गया।
अब सभी लोगों के मन को भा गया।।
दुर्दशा कर दी हमारे वंश की।
और नयी कोपो को भी यह खा गया।।
गाथा भारत को सुनाती हैं किताबें।
खुदकुशी का गीत गाती हैं किताबें...
गीतकार/रचनाकार
नीतेंद्र सिंह परमार "भारत"
छतरपुर मध्यप्रदेश
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