ग़ज़ल......
वज़्न... 212 212 212 212
क़ाफ़िया.. आँ स्वर
रदीफ़ -हो गये
हमनशीं हमसफ़र महरबाँ हो गये
कितने क़िस्से यहाँ खामखांँ हो गये !
हम नहीं जानते क्या हुआ क्या नहीं
मगर कुछ तो हुआ हमज़बाँ हो गये !
बात मुद्दत से दिल में छिपाते रहे
आज उनसे मिले ख़ुद बयाँ हो गये !
चलते चलते कदम रुक गये हैं कभी
मिलके जब भी बढ़े कारवाँ हो गये !
यूँ चमन दर चमन खिल रहा था कंवल
इक नशा सा चढ़ा बदगुमाँ हो गये !
दिल की ज़द से "कसक "दूर जाती नहीं
हाय कैसे कहें बेज़ुबाँ हो गये ! !
संगीता श्रीवास्तव "कसक "
छिंदवाड़ा मप्र
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