Thursday, January 2, 2020

घनाक्षरी या कवित्त को मुक्तक भी कहते है।

घनाक्षरी या कवित्त को मुक्तक भी कहते हैं. इसके सार्थक कारण हैं.

इस छन्द के पदों में वर्णों की संख्या तो नियत हुआ करती हैं, किन्तु, छन्द के सभी पद वर्णक्रम या मात्राओं की गणना से मुक्त हुआ करते हैं. यानि अन्य किसी वर्णिक छन्द की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) सधे हुए नहीं होते कि गणों की कोई व्यवस्था बने. अर्थात सगण या भगण या ऐसे ही गणों की पदों में आवृतियाँ नहीं बनती. उदाहरण के लिए सवैया को लीजिये.

देखा जाय तो यही वर्णक्रम मुक्तता छन्द को विशेष बनाती है. तदनुरूप, छन्दकारों का दायित्व भी बढ़ जाता है कि वे रचनाकर्म के क्रम में सचेत रहें. अन्यथा वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग की स्थिति अनायास ही बन जाती है.

इसी कारण पदों में प्रयुक्त शब्दों के कलों पर विशेष ध्यान रखा जाता है ताकि पदों के वाचन के क्रम में लयभंगता की स्थिति न बनने पाये.

सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्दों का आना तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्दों का आना वस्तुतः लयभंगता के दोष को समाप्त करने में सहायक होता है.

वर्णों की गणना के समय एक व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त हुए स्वर को एक वर्ण माना जाता है. संयुक्ताक्षर को एक ही वर्ण मानने की परम्परा रही है.

उदाहरण,
शस्य-श्यामला  सघन,  रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी  है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद  पोर-पोर घाव बन  रोम-रोम रीसते हैं,  हूकती है  आह से

यहाँ ’शस्य’ दो वर्णों का शब्द हुआ. उसी तरह ’श्यामला’ तीन वर्णों का शब्द है.
साथ ही, उपरोक्त पदों में पहले पद के माध्यम से यह भी देखा गया कि ’शस्य’ त्रिकल है तो उसके ठीक बाद ’श्यामला’ ऐसा शब्द है जो पंचकल है और मात्रा भार के अनुसार रगण (ऽ।ऽ, गुरु-लघु-गुरु) शब्द है. अतः ’शस्य’ के त्रिकल, जिसका कि मात्रा-भार गुरु-लघु है, के ठीक बाद श्याम+ला शब्द, जो कि त्रिकल+द्विकल बनाता है, का आना त्रिकल के बाद त्रिकल शब्द की सटीक व्यवस्था बना देता है. और वाचन में लयभंगता नहीं होती.

उपरोक्त व्यवस्था को घनाक्षरी के सभी पदों में चरणवत निभाना है.

छन्द शास्त्र के नियमानुसार इस छन्द के कुल नौ भेद पाये जाते हैं. किन्तु, मुख्य घनाक्षरियाँ चार हैं.

यथा, मनहरण घनाक्षरी, जलहरण घनाक्षरी, रूप घनाक्षरी तथा देव घनाक्षरी.

मनहरण घनाक्षरी - चार पदों के इस छन्द में प्रत्येक पद में कुल वर्णों की संख्या ३१ होती है. सभी पदों में नियमानुकूल तुकान्तता हुआ करती है. पदान्त में गुरु का होना अनिवार्य है. लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है. परन्तु, वाचन को सहज रखने के लिए पदान्त को लघु-गुरु से करने की परिपाटी रही है.

विशेष परिपाटी जिसके प्रचलन से इस छन्द को वस्तुतः नियत किया जाता है, उसके अनुसार प्रत्येक पद चार चरणों में विभक्त होता है तथा प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या क्रमशः ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार हो. तथा, पदान्त लघु-गुरु से हो.
एक तथ्य पर हम अवश्य दृढ़ रहें कि मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) से पदान्त न हो. अन्यथा वाचन के क्रम में लयभंगता अवश्य बनेगी.

कहीं-कहीं चरणों के वर्ण की गणना के अनुसार आंतरिक व्यवस्था ८, ७, ९, ७ या ऐसी ही कुछ हो सकती है. ऐसा होना कोई वैधानिक दोष नहीं है. परन्तु ध्यान से परखा जाय तो आंतरिक व्यवस्था चाहे जो हो, शाब्दिक कलों का निर्वहन सहज ढंग से हुआ है, तो छन्द वाचन में या पद-गायन में कोई असुविधा नहीं होती. और छन्द निर्दोष माना जाता है.

छन्दशास्त्र के कई विद्वान इसी कारण मनहरण घनाक्षरी के पदों की यति १६, १५ पर साधते हैं. परन्तु, ऐसा करना भी पद को कम्पार्टमेण्टलाइज करने की तरह नहीं होता. यानि, यह भी देखा गया है कि कई बार १६-१५ की यति भी १७-१४ या १५-१६ की व्यवस्था में हुआ करती है. 

उदाहरण के लिए एक घनाक्षरी के दो और पद लिये जाते हैं, जो कि मनहरण घनाक्षरी के विशिष्ट रूप में हैं.

हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें

उपरोक्त पदों में १६-१५ की बनती है. यानि शब्दों की व्यवस्था ऐसी है कि वाचन में प्रवाह तनिक भंग नहीं होता.

शब्द व्यवस्था को साधने के लिए एक और तथ्य पर ध्यान देना उचित होगा -
सम-विषम-विषम, या,  विषम-सम-विषम जैसी व्यवस्था में नियत हुए शब्दों के प्रयोग पदों में लयभंगता की स्थिति उत्पन्न कर देता है.
जैसे, 
’ममत्व की हो गोद या’  को ’गोद या ममत्व की हो’ किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता बन रही दीख रही है.

कारण कि, ’गोद’ त्रिकल (विषम) के बाद ’या’ जैसा द्विकल (सम) और ’ममत्व’ के कारण पुनः त्रिकल से प्रारम्भ हो रहे शब्द का आना है. अतः इसे नकारने के लिए ’ममत्व की हो गोद या’  जैसी व्यवस्था में शब्द को साधना होता है.

फिर, ’ममत्व की हो’ वाक्यांश होने से ’ममत्व’ के ’मत्व’, जोकि त्रिकल शब्द है, के बाद ’की हो’ के आने से चौकल आना हो जाता है. अर्थात, त्रिकल के बाद चौकल आ रहा है. ऐसी शाब्दिक व्यवस्था सर्वथा त्याज्य है.

कहने का तात्पर्य यह है कि हम पदों में चाहे जो शाब्दिक व्यवस्था बनायें, पर शब्द-कल तथा यति के प्रभाव तथा पद-प्रवाह सहज रहें.

मनहरण घनाक्षरी के उदाहरण प्रस्तुत हैं.

१.
शस्य-श्यामला  सघन,  रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी  है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद  पोर-पोर घाव बन  रोम-रोम रीसते हैं,  हूकती है  आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से      (इकड़ियाँ जेबी से)

२.
नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र  की  कमान  जन-जनार्दनों के  हाथ हो,  त्याग  दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान,  विन्दु  हैं  ये  देशमान,  संप्रभू  विचार में न  ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु  सत्य  है यही  सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो     (स्वप्रयास से)
***********************

-- सौरभ

जछंद परिचय:
मनहरण घनाक्षरी छंद/ कवित्त -
- संजीव 'सलिल'
*
मनहरण घनाक्षरी छंद एक वर्णिक छंद है.
इसमें मात्राओं की नहीं, वर्णों अर्थात अक्षरों की गणना की जाती है. ८-८-८-७ अक्षरों पर यति या विराम रखने का विधान है. चरण (पंक्ति) के अंत में लघु-गुरु हो. इस छंद में भाषा के प्रवाह और गति पर विशेष ध्यान दें. स्व. ॐ प्रकाश आदित्य ने इस छंद में प्रभावी हास्य रचनाएँ की हैं.

इस छंद का नामकरण 'घन' शब्द पर है जिसके हिंदी में ४ अर्थ १. मेघ/बादल, २. सघन/गहन, ३. बड़ा हथौड़ा, तथा ४. किसी संख्या का उसी में ३ बार गुणा (क्यूब) हैं. इस छंद में चारों अर्थ प्रासंगिक हैं. घनाक्षरी में शब्द प्रवाह इस तरह होता है मेघ गर्जन की तरह निरंतरता की प्रतीति हो. घनाक्षरी में शब्दों की बुनावट सघन होती है जैसे एक को ठेलकर दूसरा शब्द आने की जल्दी में हो. घनाक्षरी पाठक / श्रोता के मन पर प्रहर सा कर पूर्व के मनोभावों को हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर अपने अनुकूल बना लेनेवाला छंद है.

घनाक्षरी में ८ वर्णों की ३ बार आवृत्ति है. ८-८-८-७ की बंदिश कई बार शब्द संयोजन को कठिन बना देती है. किसी भाव विशेष को अभिव्यक्त करने में कठिनाई होने पर कवि १६-१५ की बंदिश अपनाते रहे हैं. इसमें आधुनिक और प्राचीन जैसा कुछ नहीं है. यह कवि के चयन पर निर्भर है. १६-१५ करने पर ८ अक्षरी चरणांश की ३ आवृत्तियाँ नहीं हो पातीं.

मेरे मत में इस विषय पर भ्रम या किसी एक को चुनने जैसी कोई स्थिति नहीं है. कवि शिल्पगत शुद्धता को प्राथमिकता देना चाहेगा तो शब्द-चयन की सीमा में भाव की अभिव्यक्ति करनी होगी जो समय और श्रम-साध्य है. कवि अपने भावों को प्रधानता देना चाहे और उसे ८-८-८-७ की शब्द सीमा में न कर सके तो वह १६-१५ की छूट लेता है.

सोचने का बिंदु यह है कि यदि १६-१५ में भी भाव अभिव्यक्ति में बाधा हो तो क्या हर पंक्ति में १६ + १५=३१ अक्षर होने और १६ के बाद यति (विराम) न होने पर भी उसे घनाक्षरी कहें? यदि हाँ तो फिर छन्द में बंदिश का अर्थ ही कुछ नहीं होगा. फिर छन्दबद्ध और छन्दमुक्त रचना में क्या अंतर शेष रहेगा. यदि नहीं तो फिर ८-८-८ की त्रिपदी में छूट क्यों?

उदाहरण हर तरह के अनेकों हैं. उदाहरण देने से समस्या नहीं सुलझेगी. हमें नियम को वरीयता देनी चाहिए. पाठक और कवि दोनों रचनाओं को पढ़कर समझ सकते हैं कि बहुधा कवि भाव को प्रमुख मानते हुए और शिल्प को गौड़ मानते हुए या आलस्य या शब्दाभाव या नियम की जानकारी के अभाव में त्रुटिपूर्ण रचना प्रचलित कर देता है जिसे थोडा सा प्रयास करने पर सही शिल्प में ढाला जा सकता है.

अतः, मनहरण घनाक्षरी छंद का शुद्ध रूप तो ८-८-८-७ ही है. ८+८, ८+७ अर्थात १६-१५, या ३१-३१-३१-३१ को शिल्पगत त्रुटियुक्त घनाक्षरी ही माना जा सकता है. नियम तो नियम होते हैं. नियम-भंग महाकवि करे या नवोदित कवि दोष ही कहलायेगा. किन्हीं महाकवियों के या बहुत लोकप्रिय या बहुत अधिक संख्या में उदाहरण देकर गलत को सही नहीं कहा जा सकता. शेष रचना कर्म में नियम न मानने पर कोई दंड तो होता नहीं है सो हर रचनाकार अपना निर्णय लेने में स्वतंत्र है.

घनाक्षरी रचना विधान :

आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
वर्षा-वर्णन :
उमड़-घुमड़कर, गरज-बरसकर,
जल-थल समकर, मेघ प्रमुदित है.
मचल-मचलकर, हुलस-हुलसकर,
पुलक-पुलककर, मोर नरतित है..
कलकल,छलछल, उछल-उछलकर,
कूल-तट तोड़ निज, नाद प्रवहित है.
टर-टर, टर-टर, टेर पाठ हेर रहे,
दादुर 'सलिल' संग, स्वागतरत है..
*
भारत गान :
भारत के, भारती के, चारण हैं, भाट हम,
नित गीत गा-गाकर आरती उतारेंगे.
श्वास-आस, तन-मन, जान भी निसारकर,
माटी शीश धरकर, जन्म-जन्म वारेंगे..
सुंदर है स्वर्ग से भी, पावन है, भावन है,
शत्रुओं को घेर घाट, मौत के उतारेंगे-
कंकर भी शंकर है, दिक्-नभ अम्बर है,
सागर-'सलिल' पग, नित्य ही पखारेंगे..
*
हास्य घनाक्षरी
सत्ता जो मिली है तो, जनता को लूट खाओ,
मोह होता है बहुत, घूस मिले धन का |

नातों को भुनाओ सदा, वादों को भुलाओ सदा,
चाल चल लूट लेना, धन जन-जन का |

घूरना लगे है भला, लुगाई गरीब की को,
फागुन लगे है भला, साली-समधन का |

विजया भवानी भली, साकी रात-रानी भली,
चौर्य कर्म भी भला है, नयन-अंजन का |
किसी मित्र के पास गुरुजी द्वारा रचित मनहरण घनाक्षरी हो तो कृपया प्रस्तुत करें

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