Saturday, September 7, 2019

आ० हीरा लाल जी

*ग़ज़ल*
122 122 122 122

ख़ुशी  का  ज़रा  आगमन चाहता हूँ।
नहीं  कोई   धरती,  गगन चाहता  हूँ।

जगाये   नई  आस   जो  ज़िन्दगी  में
वो सूरज की पहली किरन चाहता हूँ।

नहीं  बाग  की  आरज़ू  मेरे  दिल को
मुहब्बत का बस इक सुमन चाहता हूँ।

वफ़ा  की  महक  से  सराबोर हो जो
वो  ख़ुशबू  से भीगा बदन चाहता हूँ।

सुकूँ  से  गुज़र  हो  ख़ुदा इतना दे दे
कहाँ  मै  ज़माने  का  धन चाहता  हूँ।

जिसे  भूलकर  ये  ज़माना  है बैठा
मुहब्बत का फिर वो चलन चाहता हूँ।

चले  आओ  हमदम मेरी ज़िन्दगी में
दुखों  का  मैं अपने शमन चाहता हूँ।

हवाओं ज़रा रुख इधर का भी कर लो
मिटाना  मैं  दिल  की घुटन चाहता हूँ।

मुझे और जग का दिखाओ न लालच
मैं  अपना  ही  प्यारा वतन चाहता हूँ।

झुलाती थी माँ जब ख़ुशी के हिंडोले
वही फिर से मैं बालपन चाहता हूँ।

बिना  जिनके  जीवन अधूूरा है *हीरा*
उन्ही  से  दुबारा  मिलन  चाहता  हूँ।

                  हीरालाल

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