Thursday, November 29, 2018

हमारी गज़ल़े







      ग़ज़ल संग्रह

नीतेन्द्र सिंह परमार भारत जी 

गज़ल  1 
वज्न     - 212 212 212 212
क़ाफ़िया - आ 
रद़ीफ  - चाहिए।

शब्द बोलो मगर तौलना चाहिए ।
तौल करके सदा बोलना चाहिए ।।

होश आता नहीं शाम होते  यहाँ ।
जाम पीकर नहीं झूमना चाहिए ।।

नैन उनके मुझे देखते हैं अभी ।
आस करके जिया खोलना चाहिए ।।

पाक मिट्टी मिली आज हमको यहाँ ।
हाथ लेकर इसे चूमना चाहिए ।।

दोस्ती के इस सफ़र में मिली जो दुआ ।
साथ उसको लिये पूजना चाहिए ।।

रोज जिनके यहां खेलते थे कभी।
पास जाकर वहां घूमना चाहिए।।

दर्द होगा उसे दूर जाये कही ।
राज की बात हैं सोचना चाहिए।।

भौह तिरछी किये पास थी वो खङी ।
नैन भी तो नही मोङना चाहिए।।

प्रीत करता रहा रात दिन में उसे ।
इस क़दर से नही छोड़ना चाहिए ।।

वो किताबी मजे याद आते हमें ।
लेख लिखकर सदा जाँचना चाहिए ।।

राह कांटो भरी जो मिलेगी कभी।
अश्क आँखो लगे पोछना चाहिए ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत " 
  
गजल  2
वज्न  - 122 122 122 122
काफिया - आ
रदीफ - नही है

हमारे  हृदय  का  किनारा  नही  है ।
किसी की नज़र का इशारा नही है ।।

दिखी जो जहाँ में पड़ा आज पीछे ।
जमाना  दिखाये  नजारा  नही  है ।।

करूं बात सारी नदी की लहर सें ।
बहाये  सभी  को  गवारा  नही है ।।

भले  रूठ  जाये  हमारी  मुहब्बत ।
जमीं पर मिले वो सितारा नही है ।।

चले चाल सीधी मिले अजनबी भी ।
खुमारी  चढ़ी  पर  पुकारा  नही  है ।।

कहो  आज मन से जहाँ में जहाँ पर ।
किया  काम  ऐसा  सुधारा  नही  हैं ।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 3
बह्र      - 122 122 122 122 
काफ़िया  -  अन
रद़ीफ      -  की

सुनाओ उसी को सुने बात मन की ।
दिखाओ जहाँ में रहे आस धन की ।।

खिलौना बना हैं मुसाफिर यहां का।
न ठहरो वहां पर हिफाजत न तन की।।

हरी डाल तोङे उसी को सजा दो ।
मिले नेक छाया जहाँ छाँव वन की ।।

निकालो न पाती लिखी थी जुवां से।
सिखाओ पढ़ा कर गुने सोच जन की।।

किनारे किनारे चला आज उससे ।
कहू आज भारत तमन्ना गगन की ।।

तपन  में  जलेगें मुहब्बत  करेगें  ।
करूं आज बाते सुहाने चमन की

उठूगा गिरूगा चलूगा  जहाँ में।
करूंगा हिफाजत यहां पर वतन की।।

लडाई   करो   दूर   मेरा   शहर  हैं ।
दुआ अब करो आज न्यारे अमन की ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 4
बह्र- 1222 1222 1222 1222
रद़ीफ     -  को
काफ़िया -  ये 

कही कोई नही होता सफर में साथ चलने को ।
मिले दुश्मन यहाँ हैं अब हमारे संग चलने को ।।

उसी ने जान दी अपनी मगर सोचा नही हैं कुछ ।
हथेली पर रखा हैं दिल चला मैंखाने पलने को।।

भरोसा कर लिया मैंने उसे अपना समझ कर ही।
यहाँ सीधे चलाये तीर मेरी जान खलने को।।

करूं सेवा उसी की रात दिन राही मिले हैं जो।
लगी जो चोट सीने में वही पर तेज मलने को।।

सिफारिश हो गई हैं तो जमाना प्यार करता हैं।
करूं फरियाद में रब से जरा सा और फलने को।।

सिखाया पाठ जो हमको वही में आज बतलाता।
सड़क की मोड़ पर बैठे सभी अब आज पलने को।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

गज़ल 5 
वज्न  - 1222 1222 122
रदीफ - हरदम।
काफ़िया - आ।

जमाने ने दिखाये रंग हरदम ।
रहा में भी उसी के संग हरदम।।

बताई थी बहुत बाते सफर में ।
मगर में था परेशां तंग हरदम ।।

नयी तकनीक खोजी हैं जहाँ में ।
बहुत  ढूँढ़े  हुआ वो दंग हरदम ।।

डराते   हैं  मुझे  अंगार  से  वो  ।
लडे हैं हम सदा ही जंग हरदम ।।

नमक डाले कभी वो रोज यारो ।
जले  थे  जो हमारे अंग हरदम ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"

ग़ज़ल 6
वज्न - 122 122 122 122 
क़ाफ़िया - आ
रद़ीफ - हुआ हैं

दिले  इश्क को  तो कमाया हुआ है ।
नयन रात दिन भर जलाया हुआ है ।।

मुझे   क्या   पता  था हुई  पीर  भारी ।
नरम हाथ से खिल खिलाया हुआ हैं ।।

जमाना  सुने  आज  मेरी  कहानी ।
दिवाना वही फिर सुलाया हुआ हैं ।।

मुझे   आज   तो   वो  बुराई  सताये ।
उसी दिल लगी को भुलाया हुआ हैं ।।

उसी से कहूँ राज दिल खोल करके ।
बिना  पैर  के  भी  चलाया हुआ  हैं ।।

हमारा  कहां  आप  गर  मान  लेते ।
यहा आँख से गम पिलाता हुआ हैं ।।

खड़ी दूर मुझसे जरा पास आओ ।
हमे  रात  मे  भी बुलाया हुआ हैं ।।

- नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"


 ग़ज़ल 7
बह्र - 1222 1222 122
रद़ीफ - आया
काफ़िया - आम।

यहाँ पर आज कैसा नाम आया ।
कही कोई नही अब काम आया ।।

सभी  बैठे  यहा पर मुह फुलाये ।
नही जब हाथ में तो दाम आया ।।

नशे  से  हो  गये मशहूर जो भी ।
पिये वो भी यहा पर जाम आया।।

कही  जोगी  कही  भोगी मिले हैं ।
बहुत भटके यहा पर धाम आया ।।

हुकूमत छोड़ दी हमने जहाँ की।
वही सब मोड़ करके थाम आया।।

नीतेन्द्र सिंह परमार " भारत "

ग़ज़ल 8
बह्र       :- 1222 1222 1222
काफ़िया:- ए
रद़ीफ:-    को 

मिले हमको यहाँ सब साथ चलने को ।
यही  बाते  सुनी  हैं  रोज  खलने को ।।

हमारा तो मुकद्दर बोलता हैं जो ।
किसी के रास्ते में नेक मिलने को ।।

सुमन मन से मिले वो बाग बन कर भी ।
गुलाबी   रंग   की  बौछार  फलने  को ।।

कभी उससे किया वादा निभाया हैं ।
नई सी पंख की डाली न खिलने को ।।

गनीमत हैं जहाँ वालो अभी तो में ।
कहो मत हाथ में भी हाथ मलने को ।।

यहा रोका नही तुमको शराफत हैं ।
चले आओ समय के साथ ढलने को ।।

-नीतेन्द्र सिंह परमार "भारत"
 छतरपुर  ( मध्यप्रदेश )






No comments:

Post a Comment

'कात्यायनी' काव्य संग्रह का हुआ विमोचन। - छतरपुर, मध्यप्रदेश

'कात्यायनी' काव्य संग्रह का हुआ विमोचन।  छतरपुर, मध्यप्रदेश, दिनांक 14-4-2024 को दिन रविवार  कान्हा रेस्टोरेंट में श्रीम...