1:- ◆ग़ज़ल◆
काफ़िया-अर
रदीफ़- जा रहा है
बह्र-1222 1222 122
मेरे दिल को दुखाकर जा रहा है
कोई मुझको सताकर जा रहा है
बिखरती जा रही है रोशनी सी
वो जो यूं मुस्कुराकर जा रहा है
हुई अब इसलिए नासाज़ तबियत
कोई बिजली गिराकर जा रहा है
निकल आये जो आँसू क्या करूँ मैं
कोई सपनें चुराकर जा रहा है
हुई कुछ आज हरक़त संग-दिल में
मुझे कोई रुलाकर जा रहा है
फ़कत अब"सोम"क्यों रोकें उसे जो
सभी वादे भुलाकर जा रहा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
2-◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- आ
रदीफ़- रहा हूँ
बह्र-12122 *4
चले भी आओ कहाँ हो हमदम
मैं कब से तुमको बुला रहा हूँ
वफ़ा कभी जो की मैंने तुमसे
उसी को अब आज़मा रहा हूँ
भुला दिया मैंने दिल से तुमको
कभी न तुम मुझको याद करना
तुम्हारी यादों का आख़िरी ख़त
भी आज लो मैं जला रहा हूँ
नहीं समझता जो दर्द मेरा
चला उसे हाले दिल सुनाने
मैं भी तो पागल हूँ एक अंधे
को आइना जो दिखा रहा हूँ
सहे हजारों सितम जहां के
शिकन न चहरे पे एक आई
जो जान लेकर भी तुम चले तो
अभी भी मैं मुस्कुरा रहा हूँ
गुजार दी सारी रात मैंने
तुम्हारे आने की आरजू में
हुई है सुब्हा जो तुम न आये
चराग़ दिल के बुझा रहा हूँ
निकल गए हैं करीब से वो
उड़ी जो खुशबू पता चला है
दिखे जहाँ तक मैं"सोम"उनको
बस एकटक देखता रहा हूँ
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
3-◆ग़ज़ल◆
बहर-2122 1212 22
काफ़िया- आर
रदीफ़-मत करना
हद से ज्यादा भी प्यार मत करना
दिल को यूं बेक़रार मत करना
वक्त हूँ मैं भला रुकूँ कैसे
देर तक इंतज़ार मत करना
एक मालिक है जो सुने सबकी
हर किसी से गुहार मत करना
इश्क मीठी तो है खता यारो
फिर भी ये बार-बार मत करना
तैरना ठीक से न जानो तो
गहरे दरिया को पार मत करना
तेरे माँ-बाप जो कहें तुझसे
बात वो दरकिनार मत करना
मनचला मैं हवा का झोंका हूँ
तू मेरा ऐतवार मत करना
इश्क की इस दुकानदारी में
कोई कुछ भी उधार मत करना
जी न पाऊँ तेरे बिना साकी
"सोम" अब बेखुमार मत करना
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
4-* ग़ज़ल *
बहर-221 2122 221 2122
काफ़िया- आन
रदीफ़- लेकर
तेरे बिना करूँ क्या सारा जहान लेकर
जाऊँ कहाँ पे दिल का खाली मकान लेकर
माना बड़ा यकीं है चाहत पे फिर न जाने
रोने लगे लिपटकर मेरा बयान लेकर
दे दीजिये मुझे बस यादें वही सुनहरीं
मैं क्या करूँ बताओ ये आसमान लेकर
बस्ती ये बेईमानों की हर गली अँधेरी
बैठूँ कहाँ शराफ़त की मैं दुकान लेकर
ये सोचकर हमेशा सोता हूँ अश्क भरके
शायद कभी खुशी भी आये विहान लेकर
शैलेंद्र"सोम" मुझको करने वो कत्ल आये
जिनके लिये खड़ा था हाथों में जान लेकर
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
5-◆ग़ज़ल◆
निग़ाहों से तुमने पिला क्या दिया है
उतरता नहीं जाने कैसा नशा है
चले आओ होगी न तकलीफ़ तुमको
नहीं घर बड़ा पर ये दिल तो बड़ा है
किसी की दवाई किसी को पिलाकर
बताते हो यूं कुछ नहीं फ़ायदा है
जुदाई, तड़पना, तन्हाई में रोना
यही तो मुहब्बत का यारों सिला है
नहीं मानता जो बहू-बेटियों को
वही मुझसे कहता जमाना बुरा है
हँसूँ या कि रोऊँ मैं नाचूँ या' गाऊँ
तुम्हें क्या ये मेरा निजी मामला है
करूँ "सोम" उम्मीद किससे खुशी की
जिसे मैंने देखा वही गमज़दा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
6-◆ग़ज़ल◆
बहर~1212 1212 1212 1212
काफ़िया-आब
रदीफ़-देखिये
खिली कली बहार की है क्या जनाब देखिये
सुरूर ही सुरूर से भरा शबाब देखिये
हसीन कौन आपसा गिरा रहे हो बिजलियां
खिलाखिला बदन है ज्यों खिला गुलाब देखिये
निकल पड़ा है चाँद आज बादलों से झाँकता
यही लगा जो आपका उठा नकाब देखिये
गली-गली जुबां-जुबां जहाँ भी देखो जिक्र है
दिया खुदा ने रूप रंग बेहिसाब देखिये
कोई कहे खुमार तो किसी किसी ने यूं कहा
भरी हुई गिलास में नई शराब देखिये
गजब हुआ जो नोट बंदी चार दिन अभी हुई
हुये सफेदपोश कितने बेनकाब देखिये
बिना किये प्रयत्न तो मिले न "सोम" कारवाँ
फ़क़त यूँ ही पड़े पड़े कभी न ख्वाब देखिये
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
8-◆ग़ज़ल◆
रंगीन रातें दिन भी सुहाने कहाँ गए
फुर्सत के दोस्तों वो ज़माने कहाँ गए
मिलता सुकून दिल को घड़ी दो घड़ी जहाँ
अब दिन हवा हुए वो ठिकाने कहाँ गए
करते थे सौ शिकार अजी एक वार में
कातिल निगाह के वो निशाने कहाँ गए
गिरते थे लडख़ड़ाके मुझे देखते ही वो
बातें हसीन झूठे बहाने कहाँ गए
नासाज़ दिल का साज, हुई तर्ज बे बहर
जो गूँजते थे दिल के तराने कहाँ गए
जीवन की भागदौड़ में मिलना न भूलना
सब तो यहीं हैं दोस्त पुराने कहाँ गए
देखे हैं कितने रंग मुहब्बत के "सोम" अब
था इश्क जिनका दीन दिवाने कहाँ गए
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
7-◆ग़ज़ल◆
बहर-221 1222 221 1222
काफ़िया-आर
रदीफ़- तुम्हारा है
सच आज कहूँ दिलवर आभार तुम्हारा है
जो साँस चले मेरी ये प्यार तुम्हारा है
रंगीन रहे हर दिन हर शाम गुलाबी हो
होता जो रहे यूं ही दीदार तुम्हारा है
तुम दूर गए जब-जब ये साँस लगी थमने
जां पर भी सनम अबतो अधिकार तुम्हारा है
जाते हो, चले जाओ, आओगे अभी दौड़े
यूं रूठ चले जाना बेकार तुम्हारा है
दिल खूब करे घायल मासूम अदा कातिल
ये रूप यही समझो हथियार तुम्हारा है
कुछ भी न गिला शिक़वा ये"सोम"मुहब्बत में
हर दर्द मुझे हमदम स्वीकार तुम्हारा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
10◆ ग़ज़ल ◆
बह्र-122 122 122 122
काफ़िया-आरे
रदीफ़-सलामत
नज़र भी सलामत नजारे सलामत
सदा खुश रहो तुम तुम्हारे सलामत
गिराते रहो बिजलियाँ यूं दिलों पे
हसीं शोख़ कातिल इशारे सलामत
नहाते रहो इश्क की रोशनी में
रहें जबतलक ये सितारे सलामत
दिया छोड़ इस मुफ़लिसी में सभीने
बहुत है जो ग़म के सहारे सलामत
हुई एक मुद्दत मुझे उनसे बिछुड़े
बुझी आग लेकिन शरारे सलामत
उठा जो कभी कोई' तूफान तो भी
उफनती ये मौजें किनारे सलामत
यही सोच तो "सोम" करते दुआ हैं
तभी हम सुखी जब हमारे सलामत
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
9-◆ग़ज़ल◆
बहर~212 1222 212 1222
काफ़िया-आरा
रदीफ़- है
आपके बिना साथी कौन अब हमारा है
और तो सभी ने ही कर लिया किनारा है
वक्त के थपेड़ों ने जख्म दे दिए गहरे
मिल गया सुकूं अब जो आपने निहारा है
है बड़ा करम मालिक आपका ये बन्दों पे
शख्स आज दुनिया में कौन बेसहारा है
दूर हो गए साये कुछ दिनों से लगता यूं
आजकल तो गर्दिश में जानिए सितारा है
आपकी इनायत कुछ इसतरह मिली मुझको
तब करीब ही पाया जब कभी पुकारा है
"सोम" ढूँढ़ते कोई हमसफर मिले प्यारा
अब नही यूं ही तन्हाँ हो रहा गुजारा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
11-◆ग़ज़ल◆
बह्र-122 122 122 122
मुहब्बत में ऐसे न दिल को जलाओ
खड़े दूर क्यों हो जरा पास आओ
करूँगा हिफाजत हमेशा तुम्हारी
मेरी जान अपना मुझे तुम बनाओ
शहादत सदा जिसके दिल में रही है
सुनो आज उसको नही यूं भुलाओ
वतन है अमानत ये जिनकी सुनो जी
बड़े ही अदब से उन्हें सर झुकाओ
पढूँ नज्र में जो इबारत लिखी है
कभी पास आकर तो नजरें मिलाओ
शरारत न हो जाये मुझसे, सुनो तुम
अदाओं से यूं बिजलियाँ मत गिराओ
ख़ज़ालत बहुत मेरे महबूब में है
हवाओं सुनो पास उसके न जाओ
इनायत सदा साथ तुम यार रखना
किसी भी तरह से मुझे आजमाओ
करूँ तो शिकायत करूँ और किससे
अगर जो तुम्हीं मुझको दोषी बनाओ
बहुत रो लिया अब हरारत हुई है
चलो "सोम" यूं ही जरा मुस्कुराओ
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
12◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- आ (स्वर)
रदीफ़- है
बह्र-1222 1222 122
मुकद्दर आजकल मुझसे ख़फ़ा है
अभी बर्बादियों का सिलसिला है
फिरा सारे जमाने में भटकता
सकूं फिर भी नहीं घर सा मिला है
निगाहों से पिलाया क्या? बता दो
उतरता ही नहीं कैसा नशा है
इरादों में बुलंदी हो तो समझो
तुम्हारे सामने अम्बर झुका है
जिसे अहसास अपनी भूल का हो
नहीं उसके लिये कोई सजा है
कहूँ आबाद कैसे इस जहां को
यहाँ कोई नहीं हँसता दिखा है
परेशां "सोम" दुश्मन इसलिये भी
बचा लेती मुझे माँ की दुआ है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
13- *गजल*
काफ़िया-आने
रदीफ़-याद कुछ
बहर-2122 2122 212
मौज के वो दिन सुहाने याद कुछ
दोस्त है मुझको पुराने याद कुछ
पेड़ पर चढ़ टहनियों से झूलना
खूब मस्ती के जमाने याद कुछ
अपना भी तो वक्त आएगा कभी
कहके गाते थे तराने, याद कुछ
दूर जाके बैठना एकांत में
अबतलक हैं वो ठिकाने याद कुछ
सोम वो दिन ढूँढ़िये अब तो कहाँ
वक्त के फिसले फसाने याद कुछ
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
14-◆ग़ज़ल◆
बहर-2122 2122 2122 212
काफ़िया-आओ
रदीफ़-आप जो
एक पल जी लूं खुशी से पास आओ आप जो
बैठ कर पहलू में' मेरे मुस्कुराओ आप जो
आज हम अपने शह्र से देखते हैं चाँद को
कम हो दूरी चाँद से नजरें मिलाओ आप जो
जान इतना जानिए ये जिंदगी हो खुशनुमा
नाम का सिंदूर मेरे जो लगाओ आप तो
माप लें इक दूसरे की सासों' की गहराइयाँ
आज मुझको भी डुबो कर डूब जाओ आप जो
अबतलक अपने मुझे हर दौर तड़फ़ाते रहे
आपसे शिकवा गिला क्या दिल जलाओ आप जो
आँसुओं से ही लिखी है अपने दिल की दास्ताँ
हँस रहे हैं सब खता क्या खिलखिलाओ आप जो
"सोम" इश्को आशिकी में यूं कई शायर बने
इक ग़ज़ल मैं भी लिखूँ अब गुनगुनाओ आप जो
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
15-* ग़ज़ल *
बहर-2122 1212 22
काफ़िया-आने/रदीफ़-से
रोज हँसिये किसी बहाने से
खून बढ़ता है' मुस्कुराने से
आपको ही यकीं नहीं मेरा,
तो भला क्या कहूँ ज़माने से।
एक कोई तो खास होता है,
भूलता जो नही भुलाने से।
भूल सकते नही मुझे यूं ही,
यार ऐसे नज़र चुराने से।
आप दिल के करीब रहते हो,
दूर होते न दूर जाने से।
"सोम"जब वक्त रूठ जाता है,
कोई' आता नही बुलाने से।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
16-◆ग़ज़ल◆
2122 1212 22
प्यार जिसका करीब होता है
वो बड़ा खुशनसीब होता है
यार मिलके न मुस्कुराये जो
कितना दिल का गरीब होता है
कत्ल कर दूँ अभी मैं लगता यूं
सामने जब रकीब होता है
जान मांगे तो दे ही दी जाए
कोई ऐसा हबीब होता है
"सोम"किसको सुनायें हाले-दिल
सबका किस्सा अजीब होता है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
17-◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- ई
रदीफ़- है
बहर-2122 1212 22
माँ तेरी खूब याद आती है
हर बला से मुझे बचाती है
साथ साँसों के आती जाती है
मेरी रग-रग में मुस्कुराती है
वो मुकद्दर का सिकंदर होता
जिसको झूला हवा झुलाती है
एक दिन तो चली ही जायेगी
घर में बेटी नहीं समाती है
पेट भरता न इसलिए शायद
रोटियाँ माँ नहीं पकाती है
बैठना बोलना या शरमाना
हर अदा आपकी लुभाती है
लोग कहते हैं शोर ये कैसा
रामधुन जो कहीं सुनाती है
ठोकरों में मुझे मिला सोना
"सोम"किस्मत ही जगमगाती है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
18-◆ग़ज़ल◆
बहर-1222×4
सभी के मन में बस जाये उसे सृंगार कहते हैं
सुहानी शाम महकाये उसे सृंगार कहते हैं
नज़र देखे नजारा साँस भी थम जाये ये जानो
निगाहों में जो इठलाये उसे सृंगार कहते हैं
सभीका चैन भी छीने जगादे दिलमें कुछ अरमाँ
अदाओं में जो लहराये उसे सृंगार कहते हैं
मिलन मनमीत से हो जाये कोई भी बहाना हो
जतन ऐसा जो करवाये उसे सृंगार कहते हैं
जुवां ख़ामोश हो लेकिन कहे सब सोम हाल-ए -दिल
इशारों में जो बतलाये उसे सृंगार कहते हैं
~शैलेंद्र खरे"सोम'
19-◆ग़ज़ल◆
बहर-2×15
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-करता हूँ
मैं पागल सायों के पीछे-पीछे भागा करता हूँ
वीरानों में गीत मिलन के अक्सर गाया करता हूँ
अब केवल मयखाने में ही चैन मे'रा दिल पाता है
मन्दिर मस्जिद की राहों पर मैं तो बहका करता हूँ
क्या जानूँ नयनों की भाषा खुद को जैसे भूल गया
गैरों से आंसू लेकर मैं भी तो रोया करता हूँ
कलकी भोर नही देखूँ मैं ऐ मालिक दिल ऊब गया
लिख देता हूँ रोज वसीयत जब मैं सोया करता हूँ
मैं अज्ञान कला क्या जानूँ कुछभी सीख नहीं पाया
पर इतना संज्ञान है'मुझको कागज काला करता हूँ
लगते हैं अपने बेगाने भूला बस्ती हस्ती सब
अपने घर की राह सभी से मैं खुद पूछा करता हूँ
कोई बात हुई ऐसी जो मुझको भी मालूम नहीं
क्यूँ तेरे बारे में खुद से ज्यादा सोचा करता हूँ
सोम भला कैसाशिक़वा जो कोई अपना खास नहीं
अपनों के कारण अपनों को रोते देखा करता हूँ
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
20 ◆ग़ज़ल◆
बह्र-212 212 212 212
काफ़िया- अर
रदीफ़- जाएगा
जान भी जायेगी ये जिगर जाएगा
ऐसे देखो न आशिक तो मर जाएगा
फूल नाज़ुक है ये इसको छूना नहीं
टूटकर बस जमीं पर बिखर जाएगा
है नशा तो अभी मैं शहंशाह हूँ
ये नशा रात भर में उतर जाएगा
चैन पाता नहीं अपने घर में अगर
जा रहा है तो जा तू किधर जाएगा
कुछ निकल जायेगी आँसुओं में तपन
वक्त के साथ हर जख़्म भर जाएगा
खुद तमाशा बनेगा वो संसार में
जो मेरे दिल से यूं खेलकर जाएगा
मत पढ़ो जोर से सुर्खियां आजकल
पेट में भी जो बच्चा है डर जाएगा
रंगतों के लिए भागना छोड़ दे
तितलियाँ तो मिलेंगीं जिधर जाएगा
"सोम"रुख से अगर वो हटा दें नकाब
वक्त भी एक पल को ठहर जाएगा
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
21-◆ग़ज़ल◆
बहर~122 122 122 122
मुझे याद ऐसे भी' आया न कीजे
बहुत रो लिया अब रुलाया न कीजे
गए भूल खुद को तुम्हारे लिए जो,
उन्हें जिंदगी भर भुलाया न कीजे
सुनो हुश्न वालों जमाना बुरा है,
खुलेआम चिलमन उठाया न कीजे
बहुत ही जरूरी है' कुछ राज रखना,
सभी को सभी कुछ बताया न कीजे
अगर चाय भी जो पिला न सको तो,
किसीको भी' घरपर बुलाया न कीजे
सभी की नियत आये' हो चीज कोई,
उसे अपने' घर में सजाया न कीजे
खड़ा पास में वक्त बेवक्त है जो,
अदा शुक्रिया कर पराया न कीजे
नही देखते "सोम" नजरें उठाकर,
मुहब्बत में' ऐसे सताया न कीजे
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
22-◆ग़ज़ल◆
बह्र-1222*4
वतन कोई नहीं ऐसा वतन जैसा हमारा है
हमेशा ही रहा अपना बुलंदी पे सितारा है
तिरंगा यूं ही लहराये हमारा शान से नभ में
चलें सब साथ में मिलकर सभी का ही सहारा है
जमाना जान ले इतना हमारी माँ है ये धरती
छुये दुश्मन इसे कोई नहीं हमको गवारा है
न हिंदू हम न मुस्लिम हम नहीं हम सिक्ख ईसाई
प्रथम सब हिन्द के वासी बहे नित प्रेम धारा है
पखारे सिंधु चरणों को हिमालय सा मुकुट माँ का
कहीं भी देखियेगा "सोम" जन्नत का नजारा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
23-◆ग़ज़ल◆
बह्र-1222 1222 122
काफ़िया- ई
रदीफ़- है
किसी की चाह यूं दिल में दबी है
कहूँ कैसे बड़ी ही बेबसी है
जहाँ भी देखता हूँ तीरगी है
दिनों-दिन बढ़ रही आवारगी है
उदासी के भँवर में चाँद डूबा
बहुत सहमी हुई सी चाँदनी है
नहीं परवाह मुझको मुश्किलों की
डगर काँटों भरी मैंने चुनी है
चले आओ मेरे दिलवर कहाँ हो
हवा रूख़ी फिज़ा भी अनमनी है
जिसे है टूटकर मुझसे मुहब्बत
करे गुस्सा कभी तो लाज़मी है
कहो किसको पता कब रूठ जाए
बड़ी ही वेवफ़ा ये जिन्दगी है
गले लग जा कयामत आ लिपट जा
पता किससे मेरा तू पूछती है
सजाये कौन टूटे ख़्वाव हैं जो
बड़ा ही मतलबी अब आदमी है
अँधेरों से निकल कर "सोम" देखो
जहां में रोशनी ही रोशनी है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
24-◆ग़ज़ल◆
काफ़िया-आना
रदीफ़- हो गया
बह्र- 2122 2122 2122 212
आप जो आये तो ये मौसम सुहाना हो गया
शुक्रिया, बेज़ार दिल मेरा दी'वाना हो गया
बस कयामत ढा रही है आपकी ये सादगी
आपकी नज़रों का मैं जैसे निशाना हो गया
तंग गलियों से गुजर के उनको छूना याद है
छोड़िए अब क्या कहूँ क़िस्सा पुराना हो गया
कुछ दिनों से शाम को छत पर टहलते रोज वो
घूमने का मुझको भी अच्छा बहाना हो गया
जिंदगी में आ गया है कोई यूं लेके बहार
अब किसी के दिल में भी मेरा ठिकाना हो गया
खुल गया जो एक मयखाना तो फिर मत पूछिए
शह्र का माहौल सारा शायराना हो गया
फेसबुक से आशिकी, वादे-वफ़ा,आसां है सब
"सोम"फिर भी लोग कहते क्या जमाना हो गया
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
25- *ग़ज़ल*
बहर~ 2212, 122 , 221 ,2122
मासूम हर अदा है, मुखड़ा गुलाब जैसा
देखा न और कोई , हमनें जनाब जैसा
जितना भुला रहा हूँ,उतना सता रहा है।
भूला नही भुलाये, बाकी हिसाब जैसा
देखा मगर कहाँ पर,कुछ भी न याद आता।
कुछ याद सा मुझे है, भूली किताब जैसा
शरमा गये अदा से, नज़रें चुरा चुराके।
रुख पर हया कयामत,ओढ़े नकाब जैसा
ये काश इक नज़र जो मिलती नज़र हमारी
तो "सोम"आज हमको होता न ख्वाब जैसा
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
26 ◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- आ
रदीफ़- ले गया
बह्र- 212 212 212 212
होश भी ले गया हौसला ले गया
कोई हमको हमीं से चुरा ले गया
कुछ नहीं पूछिए कौन क्या ले गया
जैसे जीने की सारी अदा ले गया
जो मेरे पास था उनका ख़त आख़िरी
एक झौंका उसे भी उड़ा ले गया
क्या नहीं ले गया साथ परदेश में
अपने माँ-बाप की जो दुआ ले गया
लग रहा अब कि हाँ मैं गुनहगार हूँ
अपने सिर कोई मेरी सज़ा ले गया
अब तो होने लगीं चोरियाँ इस कदर
कोई बीमार की भी दवा ले गया
जाम पे जाम पीता रहा रात भर
दूसरा कोई सारा नशा ले गया
देखते ही रहे "सोम" आके कोई
वादियां, सारे वादे वफा ले गया
27 ◆ग़ज़ल◆
2122 1122 1122 22
चाँद तारों से तेरी मांग सजाऊंगा मैं
जिंदगी भर ये वफा यार निभाऊंगा मैं
जिसके दीदार को मुद्दत से तरसता ही था
अपनी नजरों में उसे आज बसाऊंगा मैं
जो भी मिलता है मुझे ज़ख्म नया दे जाता
एक इंसान हूँ किस-किस को बताऊंगा मैं
टूट सकता मैं नहीं डरके किसी अड़चन से
आसमां को भी किसी रोज झुकाऊंगा मैं
तोड़के फेंक भी दो या कि कुचल डालो तुम
फूल हूँ फूल, महक अपनी लुटाऊंगा मैं
इस जमाने में अजी दर्द के मारे हैं सब
दास्तां दर्द भरी किसको सुनाऊंगा मैं
कोई अपना सा मिले आये मजा जीने का
प्यार से उसके सभी नाज़ उठाऊंगा मैं
उतने ही वक्त ये समझो कि जिऊंगा जीभर
वक्त जो साथ तेरे "सोम" बिताऊंगा मैं
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
28 ◆ग़ज़ल◆
बह्र- 221 2121 1221 212
काफ़िया- आ स्वर
रदीफ़-रहा
दिल के करीब कौन चला आज आ रहा
इतने दिनों के बाद कोई फिर सता रहा
दरिया किनारे बैठ यही सोचता हूँ अब
क्यों मैं बेपनाह उसे चाहता रहा
उसने ही गम दिए हैं जमाने के सब मुझे
जिसको समझ नसीब सदा पूजता रहा
उतनी ही जिंदगी ये मुझे बेवफ़ा लगी
जितने ही ढंग से मैं इसे देखता रहा
जलता रहा है दिल ये मेरा जिसके प्यार में
बैठा करीब हाथ वही सेंकता रहा
पाया न जिंदगी में कभी चैन एक पल
अब सोचता हूँ किसके लिए जूझता रहा
बर्बादियों, गमों के सिवा कुछ न इश्क में
कोई न माना "सोम" यही बोलता रहा
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
29 ◆ग़ज़ल◆
काफ़िया-ओं
रदीफ़-जैसे
बह्र- 1222 1222 1222 1222
हमारे दोस्त अब कुछ तो हुए हैं दुश्मनों जैसे
बदल पल में गए देखो बदलते मौसमों जैसे
सुबह कुछ लोग जो देखे सिखाते मान मर्यादा
टहलते शाम को देखे वो हमने मनचलों जैसे
मियां अब क्या कहें जब से मिली बेगम है नूरानी
नहीं फुर्सत है इक पल की लदे देखे गधों जैसे
सिकंदर मैं कलंदर मैं मेरी मुठ्ठी में दुनिया है
बहुत ये सोचकर खुश हैं कुंऐ के मेढ़कों जैसे
दवाओं की जरूरत है दुआओं की जरूरत भी
हमारे चाहने वालों में कुछ हैं कातिलों जैसे
चमक थोड़ी सी पाकर चाँद को आँखें दिखाते हैं
सुबह होते ही खो जाते बहुत से जुगनुओं जैसे
अभीतक जो सलामत सब इनायत आप सबकी है
सभी को दोस्त कुछ दे रब, हमारे दोस्तों जैसे
बड़ा ही फर्क सूरत और सीरत में हुआ साहब
जो देखो गौर से चहरे कई हैं भेड़ियों जैसे
गमों से आँसुओं से "सोम" ये रिश्ता पुराना है
तड़पते आ रहे मुद्दत से हम तो घायलों जैसे
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
30 ◆ग़ज़ल◆
2122 1122 1122 22
चाँद तारों से तेरी मांग सजाऊंगा मैं
जिंदगी भर ये वफा यार निभाऊंगा मैं
जिसके दीदार को मुद्दत से तरसता ही था
अपनी नजरों में उसे आज बसाऊंगा मैं
जो भी मिलता है मुझे ज़ख्म नया दे जाता
एक इंसान हूँ किस-किस को बताऊंगा मैं
टूट सकता मैं नहीं डरके किसी अड़चन से
आसमां को भी किसी रोज झुकाऊंगा मैं
तोड़के फेंक भी दो या कि कुचल डालो तुम
फूल हूँ फूल, महक अपनी लुटाऊंगा मैं
इस जमाने में अजी दर्द के मारे हैं सब
दास्तां दर्द भरी किसको सुनाऊंगा मैं
कोई अपना सा मिले आये मजा जीने का
प्यार से उसके सभी नाज़ उठाऊंगा मैं
उतने ही वक्त ये समझो कि जिऊंगा जीभर
वक्त जो साथ तेरे "सोम" बिताऊंगा मैं
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
31 *ग़ज़ल*
बहर-2122 1122 1122 22
काफ़िया-आरा
रदीफ़-कीजे
प्यार में यूँ न भला आप किनारा कीजे
यार कुछ वक्त मिरे साथ गुजारा कीजे
बैठके पास कभी दिलकी रज़ा कह डालो
जान दे दूंगा अभी एक इशारा कीजे
जुल्म ढातींथी' कभी दिलपे' निगाहें कैसा
उन निगाहों से' कभी आप निहारा कीजे
आपके दिलमें'अगर प्यार जरा भी हो तो
प्यार रुसवा न मिरी जान हमारा कीजे
आपका नाम लिखा प्यार से' दीवालों पर
"सोम" घर आप कभी यार पधारा कीजे
32 *गजल*
काफ़िया- आरे
रदीफ़--होते
बहर-2122 1122 22
काश जो आप हमारे होते
पास में चाँद सितारे होते
जिंदगी होती न तन्हा यूं ही
हर घड़ी आप सहारे होते।
आपका नूर कली सा खिलता
खूब नज़रो को' नजारे होते।
राह आसान मिरी हो जाती
टूटी' किस्ती को' किनारे होते।
महफिलें प्यार से' होती रोशन
अश्कों' में यूँ न गुजारे होते।
रूठ जाते तो' मना ही लेता
मखमली "सोम" इशारे होते।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
33 ◆ गजल ◆
बहर~122 122 122 122
काफ़िया-आरा
रदीफ़-न होता
मुझे गर तुम्हारा सहारा न होता
जहाँ में कहीँ भी गुजारा न होता।
न होती मुझे इस कदर बेकरारी
अगर इस अदा से निहारा न होता।
फिजाओं में' रौनक़ तुम्हारी समायी
तुम्हारे सिवा कुछ नजारा न होता।
वफ़ा जो न होती मिरे साथ तेरी
भटकते ही' रहते किनारा न होता।
मुझे क्या गरज थी ठहरता नही मैं
अगर नाम लेके पुकारा न होता।
कहो "सोम" कैसी खता हो गई है
हुआ हाल जैसा हमारा न होता।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
34
*गजल*
काफ़िया-आने
रदीफ़-याद कुछ
बहर-2122 2122 212
प्यार के वो दिन सुहाने याद कुछ
पास आने के बहाने याद कुछ
खेलना कॉलेज के मैदान में
दोस्त है मुझको पुराने याद कुछ।
दूर जाके बैठना एकांत में
अबतलकहै वो ठिकाने याद कुछ।
देखते अक्सर उन्हें फिर दूर से
गुनगुनाये जो तराने याद कुछ।
चाय बिस्किटमें गुजारे दिन कई
आशिकी के वो जमाने याद कुछ।
"सोम"वो दिन ढूँढिये अबतो कहाँ
वक्तके फिसले फसाने याद कुछ।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
35 ग़ज़ल
काफ़िया-आना
रदीफ़-छोड़ दे
बहर-2122 2122 212
बे वजह सबको सताना छोड़ दे
काम ये अपना पुराना छोड़ दे
साथ तेरा छोड़ देगी किस घड़ी
जिंदगी को आजमाना छोड़ दे
चल हुनर तो बाजुओंका तू दिखा
बैठ के आंसू बहाना छोड़ दे
रंग तेरे देख के गिरगिट डरा
यूं कला बाजी दिखाना छोड़ दे
कबतलक यों रोटियाँ मिलती भला
काम से तू दिल चुराना छोड़ दे
"सोम"क्यों दुनिया हँसे तुझपे कभी
बेहया का खिलखिलाना छोड़ दे
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
36 ग़ज़ल
मापनी~[212 212 212 212]
हो सके तो सभी का भला कीजिये
प्यार की राह पर ही चला कीजिये.....
रोशनी चाहिये रात काली बहुत।
दीप जैसे सदा ही जला कीजिये.....
कौम को बाँटते है गुनहगार जो।
है फरेबी जरा फासला कीजिये.....
कोशिशें कीजियेआप फिरसे जरा।
पस्त यूं भी नही हौसला कीजिये.....
सोच तो लीजिये खूब आराम से।
बाद में ही सही फैसला कीजिये.....
दूरियां क्यों बढ़े बेवजह दरमियाँ।
प्यार से"सोम" हल मामला कीजिये.....
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
37 ग़ज़ल
बहर~2122 2122 212
काफ़िया- आर
रदीफ़- को
क्या हुआ है देखिये संसार को
लग गई किसकी नज़र है प्यार को
आज तो दायित्व अपना भूल कर
लड़ रहे हैं अब सभी अधिकार को
जब दवाओं का थमा है दौर भी
अब दुआ ही चाहिए बीमार को
एक लम्हा भी नही बरबाद कर
कौन रोके वक्त की रफ्तार को
सौंप मैंने सब दिया तुमको सनम
अब जहाँ भी ले चले पतवार को
तोड़ ही डाली कमर महँगाई' ने
आग जैसे लग गई बाजार को
सब फरेबी जाइएगा अब कहाँ
"सोम" जाने क्या हुआ सत्कार को
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
38 ग़ज़ल
[बहर~2122 2122 2122 2122]
आप थोड़ी देर ठहरो आप है तो रोशनी है
जा रहे हो आप तो देखो फिजा कुछ अनमनी है
जान इतना जानिये जा ही रहे हो जान लेके
आप ही हो चाँद मेरा आपसे ही चाँदनी है
शांत सी अब हो रहीं हैं धड़कनें बैचैन सी हैं
साज भी बस आप ही हो आपही से रागनी है
पा लिया संसार मैंने प्यार पाकर आप जैसा
कौन दूजा इस जहाँ में प्यार का मुझसा धनी है
फूल कलियाँ चाँद तारे देखिये"शैलेंद"फिर भी
खूबसूरत आप जैसी भी न कोई नाजनी है
39 ग़ज़ल
बहर~ 22 22 22 22 2
काफ़िया -अर
रदीफ़-लगता है
जाने कैसा अब अपना घर लगता है
अपने ही साये से अब डर लगता है....
किसका जश्न मनायें सहमा है दिल ये।
अब दहशत का ही हर मंजर लगता है....
घाव नही दिखता निकले भी आह नही।
जब अपनों का दिलपर खंजर लगता है....
अपने भी लगते मुझको बेगाने से।
जाने क्यों हर दिल ही पत्थर लगता है....
नींद सुकूँ की आये तो आये कैसे।
काँटों सा फूलों का बिस्तर लगता है....
किसको दूँ आवाज़ भला तन्हाई में।
"सोम"हमें तो खुद से भी डर लगता है..
40 ग़ज़ल
बहर~2122 2122 2122 212
काफ़िया-आना
रदीफ़-चाहिये
बैठकर यूं ही नहीं आँसू बहाना चाहिये
भूलकर हर दर्द यारो मुस्कराना चाहिये
खंजरों से तेज होती है किसी की बददुआ
जानकर तो दिल किसी का ना दुखाना चाहिये
रूठ जाने का अगर ये शौक उनके सर चढ़ा
ठीक ही है प्यार का मुझको बहाना चाहिये
हर गली आसिम टहलते हरतरफ आफात हैं
शाम से पहले ही' घर को लौट आना चाहिये
सांस थमने पर सभी कुछ खाक है नाबूद है
प्यार का नगमा हमेशा गुनगुनाना चाहिये
भर गए सब जख़्म तो जीना हुआ है बेसबब
जख़्म फिर कोई मुझे अपना पुराना चाहिये
"सोम"ऐसी क्या है आखिर बेरुखी मुझसे भला
प्यार से कोई मनाये मान जाना चाहिए
~शैलेन्द्र खरे"सोम
41 ग़ज़ल
बहर~22 22 22 22 22 2
काफ़िया-अर
रदीफ़-भूल गये
सब कुछ तुमसे नज़र मिलाकर भूल गये
कैसे जाये हम अपना घर भूल गये....
लगता है तेरे कूचे में जन्नत सा।
सारी दुनिया तुमको पाकर भूल गये....
हरपल यादों में ही खोये रहते है।
नींद नहीँ आँखो में बिस्तर भूल गये
प्यार नही करना यारो पछताओगे।
हम खुद ही सबको समझाकर भूल गये....
सोचा था सब पास बुलाकर कह दूंगा।
क्या कहना था पास बुलाकर भूल गये....
गम खुशियाँ फरियाद तड़फना रो देना।
"सोम" तुम्हें सब गले लगाकर भूल गये....
42 ग़ज़ल
बहर~2122 2122 212
प्यार में जिसके ये' दिल मजबूर है
यार वो मेरा ही' मुझसे दूर है
देखता हूँ जब उसे मैं डूबकर,
तो मुझे लगती बला की हूर है
अब दवा कोई नही है दोस्तों,
घाव दिल का बन गया नासूर है
जश्न आजादी का उसको क्या भला,
लुट गया जिस मांग का सिंदूर है
वक्त के हाथों की' सब कठपुतलियां,
आदमी फिर क्यों भला मगरूर है
आ चमकतीं बिजलियाँ आग़ोश में,
साथ में जिसके खुदा का नूर है
जिंदगी भर "सोम" जो खोजे मिला,
एक पल में हो गया काफूर है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
43 ग़ज़ल
बहर- 2122 1212 22
काफ़िया-अल
रदीफ़- गया यारों
उनके दिल से निकल गया यारों
एक आसूँ सा ढल गया यारों
मेरी तो जान पे ही बन आई है
उनका तो दिल बहल गया यारों
आह शायद गरीब की होगी
तो ही पत्थर पिघल गया यारों
इश्क की आग थी लगी दिल में
वो जो वारिश में जल गया यारों
देख दुनिया में हाल बेटी का
आज दिल ही दहल गया यारों
आज डर है सभी को अपनों से
वक्त कितना बदल गया यारों
देख के चाँद सा हसीं चेहरा
"सोम" ये दिल मचल गया यारों
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
44 ग़ज़ल
बहर~2122 2122 2122 2
काफ़िया-आर
रदीफ़- मेरा है
चाँद से भी खूबसूरत यार मेरा है
जिंदगी उसको कहूँ वह प्यार मेरा है
यार ही मेरा सभी कुछ हर खुशी मेरी।
क्या कहूँ मैं यार तो संसार मेरा है
यार की यारी लगे है बंदगी रब की।
यार से ही तो जहाँ गुलजार मेरा है
यार का होकर मैं' देखो हार बैठा दिल।
अब नही दिल पर रहा अधिकार मेरा है
क्या हुआ नादान दिलको मैं नही समझा।
कुछ दवा कीजे ये दिल बीमार मेरा है
प्यार में उसके सभी को भूल बैठा हूँ।
"सोम"दिल अब तो हुआ लाचार मेरा है।।
45 ग़ज़ल
बहर~1222 1222 1222 1222
काफ़िया-आन
रदीफ़- होता है
बली कोई नहीं होता समय बलवान होता है
समय के साथ में चलना नहीं आसान होता है
कई देखे महल मैंने हुये जो खाक पल भर में।
समझ लीजे पतन उसका जिसे अभिमान होता है
जहाँ भी देखिये है झूठ का ही बोलबाला अब।
अजी सच बात कहने में खड़ा तूफ़ान होता है।
हजारों साल जीता है दिलों में नाम लोगों के।
वतन की राह में जो भी जवाँ कुर्बान होता है
डिगा सकता नहीं कोई उसे कर्तव्य के पथ से।
सदा निज लक्ष्यपर जिसका अडिग ईमान होता है
जिये जो गैर की खातिर पराई पीर अपनाये।
युगों तक "सोम" उसका ही यहाँ गुणगान होता है।।
46 ग़ज़ल*
बहर~ 2122 1212 22
काफ़िया-अर
रदीफ़-नहीं होती
दोस्ती इस कदर नहीं होती
जिंदगी यूं बसर नहीं होती
मैं भला क्या कहूँ जमाने से,
अपनी' ही तो खबर नहीं होती।
रात कितनी गमों की लम्बी है,
क्या पता क्यों सहर नहीं होती।
धूप औ छाँव गम खुशी काँटे,
इतनी' आंसा डगर नहीं होती।
इश्क होता नहीं उजालों से,
तीरगी साथ गर नहीं होती।
यार ले लो मजा बहारों का,
जिंदगी उम्र भर नहीं होती।
हाल होता न आज ये मेरा,
आपकी जो नज़र नहीं होती।
"सोम"ये दिल कहीं नहीं लगता,
पास जो माँ अगर नहीं होती।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
47 ◆ग़ज़ल◆
1222 1222 1222 1222
तुम्हारे इश्क़ की जबसे लगी है आग सीने में
अज़ब अहसास होता है मजा आता है जीने में
पिला दे साक़िया दो घूँट तो मदहोश हो जाऊँ
महक आती है चन्दन की तेरे हाथों से पीने में
फ़िज़ा रूठी हुई अब देखिये ये मौसमी तेवर
घटा छाई नहीं दिखती जुलाई के महीने में
सफलता यूं नहीं ख़ैरात में मिलती कभी देखो
वही तो पार होता है कि जो डूबे पसीने में
अदब से सर झुका घर पे इबादत रोज करता हूँ
करूँगा क्या भला जाकर कहो मक्का मदीने में
बहुत बेताब जो मैं हूँ बड़े बेसब्र हैं वो भी
दिखाई दे रहा है "सोम" सब उनके करीने में
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
48 ◆ग़ज़ल◆
काफ़िया- आ
रदीफ़- ले गया
बह्र- 212 212 212 212
होश भी ले गया हौसला ले गया
कोई हमको हमीं से चुरा ले गया
कुछ नहीं पूछिए कौन क्या ले गया
जैसे जीने की सारी अदा ले गया
जो मेरे पास था उनका ख़त आख़िरी
एक झौंका उसे भी उड़ा ले गया
क्या नहीं ले गया साथ परदेश में
अपने माँ-बाप की जो दुआ ले गया
लग रहा अब कि हाँ मैं गुनहगार हूँ
अपने सिर कोई मेरी सज़ा ले गया
अब तो होने लगीं चोरियाँ इस कदर
कोई बीमार की भी दवा ले गया
जाम पे जाम पीता रहा रात भर
दूसरा कोई सारा नशा ले गया
देखते ही रहे "सोम" आके कोई
वादियां, सारे वादे वफा ले गया
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
49 *ग़ज़ल*
2122 2122 212
क्या हुआ है देखिये संसार को।
लग गई किसकी नज़र है प्यार को।।
आज तो दायित्व अपना भूलकर।
लड़ रहे हैं अब सभी अधिकार को।।
जब दवाओं का थमा है दौर भी।
अब दुआ ही चाहिए बीमार को।।
एक लम्हा भी नहीं बर्बाद कर।
कौन रोके वक्त की रफ़्तार को।।
सौंप मैंने सब दिया तुझको सनम।
थाम ले तू यार अब पतवार को।।
तोड़ ही डाली कमर मिहगाई ने।
आज जैसे लग गई बाजार को।।
सब फ़रेबी जाइयेगा अब कहाँ।
"सोम"जाने क्या हुआ सत्कार को।।
50 *ग़ज़ल*
बहर~2122 2122 212
काफ़िया- एगा
रदीफ़- कब तलक
दिल दिया बनकर जलेगा कब तलक
सिलसिला यूं ही चलेगा कब तलक
चाहता हूँ जान से ज्यादा जिसे,
यार वो मुझको मिलेगा कब तलक।
या खुदा बैठा रहूँगा सामने,
तू अरज मेरी सुनेगा कब तलक।
अब बहारें लौट कर जाने लगीं,
ये चमन दिलका खिलेगा कबतलक।
साँस में सिसकन सुनाई दे रही,
दिल मिरा आहें भरेगा कब तलक।
आँसुओं को रोज पीकर जी रहे,
यूं भला कोई जियेगा कब तलक।
आँधियाँ ही आँधियाँ हैं "सोम"अब,
दौर ये जाने थमेगा कब तलक।
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
51 ◆ग़ज़ल◆
1222 1222 122
तुझे अपना बनाना चाहता हूँ
नई दुनिया बसाना चाहता हूँ
ज़माने में कहीं न चैन पाया
तेरी बाँहों में आना चाहता हूँ
बिना तेरे ग़मों की आँधियाँ थीं
समय वो भूल जाना चाहता हूँ
रहो दिल में कहीं न दूर जाओ
निग़ाहों में छुपाना चाहता हूँ
सदा लेकर मैं तेरी धड़कनों की
ग़ज़ल इक गुनगुनाना चाहता हूँ
उजाला सोम हो अब जिंदगी में
दिया दिल का जलाना चाहता हूँ
शैलेन्द्र खरे "सोम" जी
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