Saturday, January 5, 2019

आ० संजीव समर्थ जी



( उर्मिला का विरह)

छंद :- घनाक्षरी
रस - वियोग श्रृंगार
शिल्प ८:८:८:७
या १६:१५

१ प्रकृति वर्णन

लखन वियोग रोग ,विरह को ताप लिए ,
खोजत है गली गली ,अवध के धाम को।।
भावत न पुष्प कलि,अलि को प्रहार गुंज,
वेध रही छाती शूल,विधि होत वाम को।।
कीर कुंज केकी कूक,कूजत है काल बन,
बैरी है नियति नित्य, पीर प्रात शाम को।।
चौदह वरष प्राण,प्रीतम के बिन रहें,
आस लगी साँस-साँस ,रट रही राम को।।

२ षडऋतु वर्णन

शीत न सुहात अली,शिशिर सुहात गात,
ज्वर ज्वार जोर जोर,हेमंत जगात है।।
आवत बसंत होली , फागुन के रंग सारे,
फीके क्रूर कारे कारे, एक न सुहात है।।
बृषभ तरनि ग्रीष्म ,जग को जरात पर,
देह नहि दाह रहो,स्वेद सीली गात है।।
बरषत नैन नेह ,नियति विलाप करे,
शरद शशि की जौन्ह ,आग सी लगात है।।

३ सिंहावलोकन

रात न सुहात न सुहात है प्रभात आलि,
लाली न सुहात न सुहात निज गात है।।
गात है न प्रान न गुमान कोई मान रहो,
ध्यान नहि धूप छाँव वारि है कि वात है।।
वात है छुरी सी धार मार -मार उर वार,
नाम धाम भूल गई, कौन पितु मात है।।
मात है अवनि नहि अंक में अगनि लेत,
जल रही नैन जल,दिन अरु रात है।।

अलंकार सौन्दर्य:-
छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास ,सानुप्रास,
उपमा,रूपक,विशेषोक्ति,
अतिश्योक्ति  ,विरोधाभास आदि
यमक (मार-मारना ,मार -कामदेव)


संजीव समर्थ

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