-◆ग़ज़ल◆
निग़ाहों से तुमने पिला क्या दिया है
उतरता नहीं जाने कैसा नशा है
चले आओ होगी न तकलीफ़ तुमको
नहीं घर बड़ा पर ये दिल तो बड़ा है
किसी की दवाई किसी को पिलाकर
बताते हो यूं कुछ नहीं फ़ायदा है
जुदाई, तड़पना, तन्हाई में रोना
यही तो मुहब्बत का यारों सिला है
नहीं मानता जो बहू-बेटियों को
वही मुझसे कहता जमाना बुरा है
हँसूँ या कि रोऊँ मैं नाचूँ या' गाऊँ
तुम्हें क्या ये मेरा निजी मामला है
करूँ "सोम" उम्मीद किससे खुशी की
जिसे मैंने देखा वही गमज़दा है
~शैलेन्द्र खरे"सोम"
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