Monday, December 3, 2018

छंद :- आ0:- भीमराव झरबड़े


अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया दीजिये और आनंद लीजिये छंदों का -

1)

*छन्द-विष्णुपद (मापनी मुक्त)*

राष्ट्र प्रेम की मुखरित धारा, उर में नित्य बहे।
लक्ष्य एक  उत्थान देश का, चाहे कष्ट सहे।।
लोक तंत्र की गरिमा अपनी, सबके साथ रहे।
वतन एक संविधान हमारा, जिन्दाबाद कहे।।

इसका अन्न समीर रुधिर बन, तन में दौड़ रहा।
इसकी गौरव गाथा गाऊँ, यह मन बोल रहा।।
आँख  उठाकर  देखे  कोई, सहन  नहीं होगा।
मातृभूमि  के  गद्दारों  का , दमन  यहीं होगा।।

भीमराव झरबडे़ "जीवन"बैतूल

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2)

*छंद - चामर (मापनी युक्त वर्णिक)*

हो समर्थ देश हिन्द विश्व में वितान हो।
एक पंथ  भारतीय  एक  प्रावधान हो।।
गीत हो न ग्रंथ हो न धर्म हो कुरान हो।
मंत्र हो न आयतें सुनेक राष्ट्र गान हो।।1

लोकतंत्र है विशाल विश्व में गुमान हो।
रोज चाँदनी खिले दिनेश से विहान हो।
पुष्प ही खिले यहाँ न शूल के निशान हो।
प्राण वायु स्वच्छ भूख प्यास का निदान हो।।2

हर्ष हो विमर्श हो प्रजा सभी समान हो।
रोग मुक्त देश में नहीं कहीं थकान हो।।
दीनता न जन्म ले न कष्ट के निशान हो।
हो ध्वजा तिरंग और शुभ्र आसमान हो।।3

राजनीति स्वच्छ स्वस्थ हाथ में कमान हो।
हिन्द देश एक तो जुबान भी समान हो।
वर्ग भेद हो नहीं न उच्च नीच मान हो।
आन बान शान जान एक खानपान हो।।4

भीमराव झरबड़े "जीवन"बैतूल

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3)

*वाचिक भुजंगी छंद*

नई पौध में कम जहर देखकर।
पिलाने लगे विष नया घोलकर।
नहीं चाहते कुछ बने भाव सम।
पुरातन पथों पर बढ़े तब कदम।। 1

लपट द्वेष की अब प्रबल हो गई।
पली  प्रीत  उर में  गरल  हो गई।
नयन   मौन   संदेह  से  देखते।
घृणित व्यंग्य के बाण उर बेधते।।

2

भीमराव झरबड़े "जीवन"बैतूल
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4)

*छंद - वाचिक गंगोदक (मापनी युक्त मात्रिक)*

राग है देश से प्राण प्रण देश का, शीश झुकता नहीं बंदगी के लिए।
देश के फर्ज़ में पांव पीछे न हो, देश बढ़कर लगे जिन्दगी के लिए।
मोह को शोक को त्याग दे वीर जो, देश के फर्ज़ को धीर ही चाहिए।
दीनता को मिटाने रखे लक्ष्य जो, देश को आज वह मीर ही चाहिए।।1

धर्म का मर्म था और ही कुछ मगर, धर्म का मर्म है और ही आजकल।
भेद से भाव से ऊँच से नीच से, हो रहा है इधर गौर ही आजकल।।
देश के धर्म को छोड़कर अब मनुज, धर्म का बन गया पौर ही आजकल।
रैलियां हो रही हाथ हथियार ले, चल पड़ा है अजब दौर ही आजकल।। 2

शारदे की कृपा से लिखे लेखनी, शारदे से सहज भाव से प्यार हो।
गा सके छंद को लोग स्वर साध ले, छंद की राग हो एक रसधार हो।
छंद में शिल्प हो छंद में भाव हो, छंद में धार हो छंद में सार हो।
छंद हो रस भरा छंद हो चटपटा, छंद में बिम्ब हो छंद में भार हो।।3

आज प्रौद्योगिकी की चली बाढ़ तो, गांव में आ गया है शहर आजकल।
हो गये हैं सभी सम्पदा पूर्ण अब, गांव में बह रही है नहर आजकल।
मान सम्मान भी गांव में अब नहीं, शीश पर है नशे का जहर आजकल।
पाल चौपाल भी हो गई खत्म सब, चल पड़ी है अनोखी लहर आजकल।। 4

भीमराव झरबड़े "जीवन"बैतूल
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5)

*छंद - त्रिभंगी (मापनी मुक्त मात्रिक)*

रे मन मधुमासी, छोड़ उदासी, रास हास परिहास करो।
यौवन मदमाता, प्रणय सुहाता, पुलकित गाता वास करो।
रोमांचित कण-कण, झूमे उपवन, भ्रमर पुष्प की गोद पड़ा।
हमराज़ अनंगी, बनकर संगी, जाँच रहा हर इक मुखड़ा।।

मन उपवन महके, सरसों लहके, पलाश दहके कानन में।
जब जब पिक बोले, मधुरस घोले, मधुप गा रहे उपवन में।
अब  आम्र  मंजरी, गंध  रसभरी, बाँट  रही है मादकता।
रति राजा आया, पुलक समाया, जित देखों उत चंचलता।।

भीमराव झरबड़े "जीवन"बैतूल
29/01/2018

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